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________________ 30000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000oool 1000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 मूल: सक्का सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छहया नरेणं| अणासएजोउसहेज कंटए, वइमएकण्णसरेसपुज्जोlll छायाः शक्या: सोढुमाशयाकण्टकाः, अयोमया उत्साहमानेन नरेण। __अनाशया यस्तु स हेत कण्टकान्, वाच्यमान् कर्णशरान् सः पूज्यः / / 8 / / ___ अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (उच्छहया) उत्साही (नरेणं) मनुष्य (आसाइ) आशा से (अओमया) लोहमय (कंटया) कंटक या तीन (सहेउ) सहने को (सक्का) समर्थ है। परन्तु (कण्णसरे) कान के छिद्रों में प्रवेश करने वाले (कंटए) काँटे के समान (वइमए) वचनों को (अणासए) बिना आशा से (जो) जो (सहेज) सहन करता है (स) वह (पुज्जो ) श्रेष्ठ है। भावार्थ : हे गौतम! उत्साह पूर्वक मनुष्य अर्थप्राप्ति की आशा से लौह खण्ड के तीर और काँटों तक की पीड़ा को खुशी खुशी सहन कर जाते हैं। परन्तु उन्हें वचन रूपी कण्टक सहन होना बड़ा ही कठिन मालूम होता है। तो फिर आशा रहित होकर कठिन वचन सुनना तो बहुत ही दुष्कर है। परन्तु बिना किसी भी प्रकार की आशा के, कानों के छिद्रों द्वारा कण्टक के समान वचनों को सुनकर जो सह लेता है बस, उसी को श्रेष्ठ मनुष्य समझना चाहिए। मूलः मुहुत्तदुक्खाउहबंति कंटया, अओमयाते वितओसुउद्धरा। वायादुरुत्वाणि दुरुद्धराणि, चेराणुबंधीणि महब्भयाणि||९|| छाया: मुहूर्त दुःखास्तु भवन्ति कण्टकाः, अयोमयास्तेऽपि ततः सूद्धराः / वाचा दुरुक्तानि दुरुद्धराणि, वैरानुबन्धीनि महब्भयानि।।६।। अन्वयार्थ : हे इन्द्रभूति! (अओमया) लोह निर्मित (कंटया) काँटों से (उ) तो (मुहुत्तदुक्खा) मुहूर्त मात्र से (सुउद्धरा) सुख पूर्वक निकल सकता है। परन्तु विराणुबंधीणि) वैर को बढ़ाने वाले और (वायादुरुत्ताणि) कहे हुए कठिन वचनों का (दुरुद्धराणि) हृदय से निकलना मुश्किल है। भावार्थ : हे गौतम! लोह निर्मित कण्टक-तीर से तो कुछ समय तक ही दुःख होता है और वह भी शरीर से अच्छी तरह निकाला जा सकता है। किन्तु कहे हुए तीक्ष्ण मार्मिक वचन वैर को बढ़ाते हुए नरकादि दुःखों को प्राप्त कराते हैं और जीवन पर्यन्त उन कटु वचनों का हृदय से निकलना कठिन है। मूलः अवण्णवायं च परंमुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं| ओहारिणिंअप्पियकारिणिंच,भासंनभासेज्जसयासपुज्जो||9011 50000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000060 1000000000000000000 निर्ग्रन्थ प्रवचन/123 Soooooo000000000006 Jain Education International nal6. Fon Personal & Private Use Only 5000000000000000060 owww.jainelibrary.org
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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