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________________ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000cpa 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 . अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (माणुसत्तणं) मनुष्यत्व (लद्धूणवि) प्राप्त हो जाने पर भी (पुणरावि) फिर (आरिअत्तं) आर्यत्व का मिलना (दुल्लह) दुर्लभ है। क्योंकि (बहवे) बहुतो को यदि मनुष्य भव मिल भी गया तो वे (दसुआ) चोर और (मिलक्खुआ) म्लेच्छ हो गये अतः (समय) समय मात्र का भी (पमायए) प्रमाद मत कर। भावार्थ : हे गौतम! यदि इस जीव को मनुष्य जन्म मिल भी गया तो आर्य होने का सौभाग्य प्राप्त होना महान् दुर्लभ है। क्योंकि बहुत से नाम मात्र के मनुष्य अनार्य क्षेत्रों में रहकर चारी वगैरह करके अपना जीवन बिताते हैं। ऐसे नाम मात्र के मनुष्यों की कोटि में और म्लेच्छ जाति में जहां कि घोर हिंसा के कारण जीव कभी ऊँचा नहीं उठता ऐसा जाति और देश में जीव ने मनुष्य देह पा भी ली तो किस काम की! इसलिए आर्य देश में जन्म लेने वाले और कर्मों से आर्य हे गौतम! एक पल भर का भी प्रमाद मत कर। मूल: लणवि आरियत्तणं, अहीणपंचिंदियया हुदुल्लहा। विगलिंदियया हु दीसई, समयं गोयमा मा पमायए||१७|| छायाः लब्ध्वाऽप्यार्यत्वं, अहीनपञ्चेन्द्रियता हि दुर्लभा। विकलेन्द्रियता हि दृश्यते, समयं गौतम! मा प्रमादीः।।१७।। 3 अन्वयार्थ : (गोयम!) हे गौतम! (आरियत्तणं) आर्यत्व के (लक्षूण वि) प्राप्त होने पर भी (हु) पुनः (अहीणपंचिंदियया) अहीन पंचेन्द्रियपन मिलना (दुल्लहा) दुर्लभ है (हु) क्योंकि अधिकतर (विंगलिदियया) विकलेन्द्रिय वाले (दीसई) दीख पड़ते हैं अतः (समय) समय मात्र का (मा पमायए) प्रमाद मत कर। _भावार्थ : हे गौतम! मानव देह आर्य देश में भी पा गया परन्तु सम्पूर्ण इन्द्रियों की शक्ति सहित मानव देह मिलना महान कठिन है। क्योंकि बहुत से ऐसे मनुष्य देखने में आते हैं कि जिनकी इन्द्रियाँ विकल हैं। जो कानों से बधिर हैं। जो आंखों से अंधे या पैरों से अपंग हैं। इसलिए सशक्त इन्द्रियों वाले हे गौतम! चौदहवां गुणस्थान प्राप्त करने में कभी आलस्य मत कर। मूल: अहीणपंचिंदियत्त पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा। / कुतित्थिनिसेवए जणे, समयं गोयम! मा पमायए||१८ 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 00000000000000000000067 -निर्ग्रन्थ प्रवचन/113 b00000000000000000 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only TO
SR No.004259
Book TitleNirgranth Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGuru Premsukh Dham
Publication Year
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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