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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का साहित्यिक अध्ययन 79 चतुर्थ, दशम आदि अध्ययनों को छोड़कर अन्य सभी अध्ययन ऐतिहासिकता से परिपूर्ण हैं। (ख) सामाजिक समाज के प्रतिनिधि माता-पिता, पुत्र, परिजन आदि होते हैं। इन्हीं के सामाजिक कार्य, जन्म, उत्सव, संस्कार, नामकरण, शिक्षा-दीक्षा, विवाह आदि होते हैं। ज्ञाताधर्म के प्रथम अध्ययन में पूर्ण सामाजिक परिवेश देखा जा सकता है। इसमें मातृपक्ष, पितृपक्ष, 1 विवाह आदि सभी पक्षों को लिया गया है। द्वितीय अध्ययन में सन्तान प्राप्ति के लिए देवपूजा, 2 पुत्र-प्राप्ति, पुत्र संस्कार आदि महत्त्वपूर्ण संस्कारों को भी दिया गया है। तृतीय अध्ययन में गणिका की मनोदशा, चतुर्थ अध्ययन में अरिष्टनेमि की उपासना, आठवें में मल्ली का जन्म, पुनर्जन्म, युद्ध, तेरहवें में राजाज्ञा, चौदहवें में तेतलिपुत्र, अमात्य आदि के वर्णन समसामयिक सामाजिक स्थिति को प्रस्तुत करते हैं। (ग) संवेदनशीलता ज्ञाताधर्मकथा की कथाएं किसी वर्ग विशेष या समाज से जुड़ी हुई नहीं हैं, अपितु वे कथाएँ विशाल क्षेत्र को लिए हुए मानव जीवन को प्रभावित करती हैं। तृतीय अध्ययन की अण्डककथा में मयूरों का संरक्षण मनोयोग की दशा को व्यक्त करता है। सागरदत्त का पुत्र सार्थवाह मयूरी के अण्डों को देखकर शंकित हो उठता है कि अण्डा निपजेगा कि नहीं, बालक हो जाने पर वह क्रीड़ा करेगा कि नहीं इत्यादि भाव संवेदनशीलता को व्यक्त करते हैं। इसी तरह मल्ली नामक आठवें अध्ययन में मल्ली के निष्क्रमण पर अन्य राजकुमारों का दीक्षित होना इसी बात का संकेत करता है।४ (घ) सम्बद्धता . कथानक की सफलता घटनाओं को जोड़ देने मात्र से नहीं हो जाती, अपित कथानक को सुगठित, संतुलित एवं परस्पर में जोड़ना कथाकार का मूल लक्ष्य होता है जिससे कथा प्रभावशाली एवं कलात्मक रूप को प्राप्त होती है। ज्ञाताधर्मकथा में भी यही वस्तुस्थिति है। कथाकार जो भी कथा कहता है उसे एक-दूसरे के साथ जोड़कर रखता है। उदाहरण के लिए चौदहवें अध्ययन के तेतलिपुत्र की कथा को देखा जा सकता है, इसमें तेतलिनगर के आधार पर पुत्र का नाम तेतलि रखा गया 1. ज्ञाताधर्मकथांग, 1/4. 2. वही, 2/15. 3. वही, 3/18. 4. वही, 8/184. . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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