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________________ ज्ञाताधर्मकथांग की विषयवस्तु 65 अवस्था में नहीं होना चाहिए था। उसने एक बावड़ी व बगीचा आदि बनाने का सोचा और अगले दिन पौषध पूर्ण कर राजा श्रेणिक के पास गया। उनकी अनुमति प्राप्त कर उसने एक सुन्दर बावड़ी बनवाई, बगीचे लगवाए, चित्रशाला, भोजनशाला, चिकित्साशाला तथा अलंकारशाला का निर्माण करवाया। बहुत से व्यक्ति इन सबका उपयोग करने लगे तथा सभी नन्द मणियार की प्रशंसा करने लगे। लोगों के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर नन्द बहुत खुश होने लगा। नन्द को उस बावड़ी के प्रति बहुत आसक्ति हो गई थी। कुछ समय पश्चात् नन्द मणियार के शरीर में सोलह प्रकार के रोग उत्पन्न हो गए। उसने यह घोषणा करवा दी कि जो उसके एक रोग को भी शान्त कर देगा वह उसे विपुल धन-सम्पत्ति देगा। अनेक वैद्य, चिकित्सक आदि आए एवं नानाविध औषधियों का प्रयोग किया परन्तु सभी उपाय निरर्थक सिद्ध हुए। कोई भी उनका रोग उपशान्त नहीं कर सका। कालान्तर में नन्द अत्यन्त दुःखित होकर बावड़ी में आसक्ति के कारण मरकर उसी बावड़ी में मेढ़क के रूप में उत्पन्न हुआ। . नन्द के मरणोपरान्त उस बावड़ी पर स्नान करने वाले बार-बार नन्द की प्रशंसा करते थे। बार-बार नन्द की प्रशंसा सुनकर उस मेढ़क को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया और अपने अज्ञान एवं व्रतों की स्खलना हेतु पश्चाताप करने लगा। उसने पुन: उन पूर्व भव के व्रतों को पालना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन राजगृह में भगवान महावीर का पर्दापण हुआ। यह सुनकर मेढ़क भी महावीर के दर्शन हेतु उत्कृष्ट भावों को लेकर बावड़ी से निकलकर समवसरण में जाने लगा। परन्तु रास्ते में श्रेणिक राजा जो अपने दल सहित महावीर के दर्शनार्थ जा रहे थे उनके एक अश्व के पैरों के नीचे आने से कुचल गया। अब मृत्यु निश्चित है जानकर उसने प्रत्याख्यान किया और मृत्योपरान्त देवयोनि को प्राप्त हुआ। * शास्त्र में उल्लेख है कि वह वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर मुक्त अवस्था को प्राप्त हुआ। मूलत: इसमें जलचर जीव के संरक्षण की बात कही गयी है। दर्दर अर्थात् मेढ़क जल में रहता है उसकी सीमा जल तक ही होती है परन्तु वह जलचर जीव भी पुण्य भोग से धर्म के प्रति आस्थावान हो जाता है जिसके फलस्वरूप वह भक्तिगुण से युक्त हो महावीर के समवसरण की ओर जाता है, रास्ते में प्राणान्त हो जाता है। इसमें तिर्यन्च के उत्कृष्ट विचारों की बात कही गयी है। साथ ही आसक्ति को पतन का कारण बताते हुए यह समझाया गया है कि सद्गुरु के समागम से आत्मिक गुणों की वृद्धि होती है। इसलिए आर्तध्यान और रौद्रध्यान से रहित धर्मध्यान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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