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________________ प्राकृत कथा साहित्य का उद्भव एवं विकास 35 वैनयिकों का तर्कपूर्ण खण्डन है। इसमें स्वमत स्थापना और परमत खंडन में भी कथोपकथन का सहारा लिया गया है। शौरसेनी साहित्य के ग्रन्थों में कथा भावपाहुड में बाहुबलि 2, मधुपिंगल३, वशिष्ठमुनि, बाहुमुनि, 5 दीपायन, 6 शिवकुमार,७ भव्यसेन एवं शिवभूति के भावपूर्ण कथानकों का उल्लेख मिलता है। तिलोयपण्णत्ति में 63 शलाकापुरुषों के जीवन चरित्रों की प्रामाणिक सामग्री प्राप्त होती है।१० इस प्रकार जैन आगमों में प्रसंगानुसार अनेक कथाएं प्राप्त होती हैं। ये कथाएँ नदी की मुख्य धारा के प्रवाह से किनारे पर उगे हुए फूलों के पौधों की तरह हैं। इस तरह की छोटी-मोटी कथाओं ने अंग साहित्य के छठे अंग को पूरा ही कथामय बना दिया है। इसमें धार्मिक आचार, आध्यात्मिक तत्त्व-चिन्तन, नीति और कर्तव्य को सफलतापूर्वक प्रतिपादित किया गया है जिससे सैद्धान्तिक पक्ष का व्यवहारिक-निरूपण होता है। इसी कारण इसे जैन उपासक, व्रती, तत्त्वज्ञ, श्रमण आदि आत्मशोधन और परिमार्जन के लिए आधार बनाते हैं। इसमें सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन की विकृतियों, परम्पराओं और मान्यताओं को उभार कर उन्हें सुलझाने का प्रयास किया गया है। अत: यह कह सकते हैं कि ये कथाएँ तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती हैं। . आगमों के प्रत्येक अंश में व्यक्ति के जीवन-मूल्यों का जो भी दृष्टान्त-उदाहरणों के द्वारा दिये गये हैं वे अनुपम एवं सराहनीय कहे जा सकते हैं। प्राकृत आगम के समस्त वाङ्मय में जो कुछ भी कथन है वह जंबूस्वामी, गौतम गणधर के प्रश्नों से प्रारम्भ होता है और उसका उत्तर महावीर द्वारा दिया जाता है। ऐसा संवादात्मक प्रयोग अन्यत्र नहीं है। ज्ञाताधर्मकथा तो कथा विकास का प्रथम सोपान है अतः इसके 1. कौत्कल काणोविद्ध.....स्थूणादीनां। हरिभद्र के प्राकृत साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ०-१६. 2. भावपाहुड, 44. 3. वही 45. 4. . वही 46. 5. वही 49. 6. वही 50. 7. वही 51. 8. वही 52. 9. वही 53. .. 10. तिलोयपण्णत्ति, चतुर्थ, अधिकार, गाथा 515-1497. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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