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________________ ज्ञाताधर्मकथांग का भाषा विश्लेषण 113 की जनभाषा भी कहा गया है। इस विषय में विद्वानों ने कई प्रकार के विचार व्यक्त किये और कहा कि प्राकृत की प्रकृति वैदिक भाषा से मिलती जुलती है। प्राकृत में व्यंजनान्त शब्दों का प्रयोग प्राय: नहीं होता है। संस्कृत में भी अंतिम व्यंजनान्त शब्दों का लोप हो जाता है। हरिदेव बाहरी ने कहा है प्राकृतों से वेद की साहित्यिक भाषा का विकास हुआ, प्राकृतों से संस्कृत का विकास भी हुआ और प्राकृतों से इनके अपने साहित्यिक रूप भी विकसित हुए। इस तरह से प्राकृत के विकास का ज्ञान होता है तथा यह भी ज्ञात होता है कि सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ-साथ भाषा का जो स्वरूप जन-जन में विकसित हुआ और जिसे जनता ने लोक व्यवहार के लिए बोली का माध्यम बनाया वह प्राकृत भाषा ही है। जो भाषा जनभाषा का रूप धारण कर लेती है वही प्राकृत है। कालान्तर में जो भी जनबोली विकसित होगी उसमें भी इसकी परछाई एवं शब्द-प्रयोग अवश्य ही गतिमान होंगे। प्राकृत भाषा के साहित्य को मध्य भारतीय आर्य भाषा काल के अन्तर्गत रखा गया है। इसके आंतरिक स्वरूप के परीक्षण से यह सिद्ध हआ कि साहित्य और समाज दोनों ही के अपने-अपने रूप हैं। जो प्रवाह रूप में है वह प्राकृत भाषा है और जो बाहरी रूप है, वह संस्कृत है।३ : प्रयोग की दृष्टि से जब इस पर विचार करते हैं तो यही भाव निकलता है कि प्राकृत जनजीवन से जुड़ी हुई भाषा थी, जिसे युग-युगान्तर से अपनाया जाता रहा और महावीर एवं बुद्ध ने उसे साकार रूप दिया। महावीर एवं बुद्ध के उपदेशों की भाषा जनसाधारण की भाषा थी। जो प्रकृति से जुड़ी हुई जन-जन को प्रभावित करने वाली थी और जो वट वृक्ष की तरह फैलकर आज भी अपने स्वरूप को बनाए हुए है। * 'प्राकृत' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ ___प्राकृत का अर्थ प्रकृति है अर्थात् जो जन-जन के शब्दों के अर्थ का बोध कराती है वह प्रकृतिजन्य भाषा प्राकृत है। व्याकरणकारों ने प्राकृत शब्द के कई अर्थ किए हैं। . 1. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ० 7. एन इन्ट्रोडक्शन टू कम्प्रेटीव फिलोसोपी, पृ० 163. 2. प्राकृत भाषा और उसका साहित्य, पृ० 13, प्र० राजकमल प्रकाशन दिल्ली. 3. पं. बेचरदास, प्राकृत-भाषा, पृ० 16, प्र. पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी 1941. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004258
Book TitleGnatadharmkathang ka Sahityik evam Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumari Kothari, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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