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________________ यहाँ आचार्य हेमचन्द्र पूर्वोक्त सूत्र की वृत्ति में आगे यह निर्देश कर रहे हैं कि . - "संस्कृतानन्तरं प्राकृतमाधिक्रियते । संस्कृतानन्तरं च प्राकृतस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानभेदसंस्कृतयोनेरेव तस्य लक्षणं न देश्यस्य इति ज्ञापनार्थम्। संस्कृतसमं तु संस्कृतलक्षणेनैव गतार्थम् । प्राकृते च प्रकृतिप्रत्ययलिङ्गकारकसमाससंज्ञादयः संस्कृतवद् वेदितव्याः । अर्थात् संस्कृत के अनन्तर प्राकृत का व्याकरण प्रारम्भ किया जाता है। सिद्ध और साध्यमान (ऐसे दो प्रकार के ) शब्द होनेवाला संस्कृत जिसका मूल (= योनि) है - वह प्राकृत, ऐसा उस प्राकृत का लक्षण है और यह लक्षण देश्य का नहीं, इस बात का बोध करने के लिए 'संस्कृत के अनन्तर प्राकृत का विवेचन' - ऐसा कहा है, तथापि जो प्राकृत संस्कृत के समान है वह ( वह पहले कहे हुए) संस्कृत के व्याकरण से ज्ञात हुआ है तथा प्राकृत में प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास, संज्ञा इत्यादि संस्कृत के अनुसार होंगे - ऐसा जानें। उपर्युक्त सूत्र की वृत्ति में आचार्य हेमचन्द्र ने स्पष्ट किया है कि जो 'प्रकृतिः संस्कृतम्' कहा है- इसका अर्थ यही है कि अब तक हमने अपने सिद्ध हेमशब्दानुशासन नामक व्याकरणग्रन्थ के सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरण का प्रतिपादन किया है और अब आगे अन्तिम अष्टम अध्याय में हम जो प्राकृत भाषा का व्याकरण समझायेंगे, वह अब तक बताये संस्कृत व्याकरण की प्रकृति के आधार पर ही समझायेंगे। अर्थात् संस्कृत शब्दों, क्रियाओं आदि के आधार पर प्राकृत रूपों की सिद्धि की जाएगी। अतः 'प्रकृतिः संस्कृतम्' इसका अर्थ यह कदापि नहीं लगाना चाहिए कि प्राकृत की प्रकृति (उत्पत्ति) संस्कृत ( से) है। इसी तरह प्राकृत के प्रायः सभी वैयाकरणों ने 'तत्' शब्द से संस्कृत को लेकर 'तद्भव' शब्द का व्यवहार 'संस्कृत - भव' अर्थ इसलिए किया है कि उन्हें संस्कृत भाषा के आधार पर प्राकृत व्याकरण समझाना है। क्योंकि प्राकृत व्याकरण को संस्कृत के आधार पर ही समझाने की परम्परा है। Jain Education International २७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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