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________________ को हम प्राकृत का उपलब्ध प्रथम रूप कह सकते हैं। अतः जो विद्वान् प्राकृत को संस्कृत का विकृत रूप या संस्कृत से उद्भूत कह देते हैं। अब उन्हें अपनी मिथ्या धारणा छोड़कर अनेक भाषाओं की जननी प्राकृत भाषा के मौलिक एवं प्राचीन स्वरूप और उसकी महत्ता को समझ जाना चाहिए। ___ डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी (भारतीय आर्यभाषा और हिन्दी, प्रका. राजकमल प्रकाशन, दिल्ली १९५७, पृष्ठ १५), पण्डित प्रबोध बेचरदास (प्राकृत-भाषा, प्रकाशक-पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी, पृ. १३), डॉ. पी.डी. गुणे (एन इण्ट्रोडक्शन टू कम्पेरेटिव फिलॉलॉजी सन् १९५०, पृ. १६३) जैसे भाषा वैज्ञानिकों के मतों के मन्थन से भी यह निष्कर्ष नवनीत रूप में निकलता है कि प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का उद्भव और विकास प्राचीन जनभाषा से ही हुआ है। इस तरह छान्दस भाषा से वैदिक वाङ्मय का प्रणयन हुआ है, उसमें लोकभाषा के अनेक स्रोत उपलब्ध होते हैं। अतः छान्दस भाषा के अध्ययन के लिए प्राकृत भाषा का अध्ययन काफी उपयोगी सिद्ध होगा। छान्दस भाषा में प्राकृत भाषा के तत्त्व प्राकृत भाषा के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. श्रीरंजनसूरिदेव ने अपनी पुस्तक “प्राकृत-संस्कृत का समानान्तर अध्ययन" (पृ. ९८-९९) में लिखा है कि - भाषातत्त्व की दृष्टि से भी प्राकृत के स्वरूप-ज्ञान के बिना छान्दस भाषा का ‘पश्चात्' की जगह ‘पश्या', 'युष्मान्' की जगह 'युष्मा', 'उच्चात्' की जगह पर 'उच्चा' एवं 'नीचात्' की जगह 'नीचा' का प्रयोग मिलता है। ऐसे प्रयोग में दो स्थितियाँ हैं - प्रथम में, अन्त्य व्यंजन का लोप होता है और द्वितीय में, अन्त्य व्यंजन में दीर्घ 'आ' स्वर लगता है। स्पष्ट ही यह प्रवृत्ति प्राकृत-भाषा की है और इसका प्रवेश छान्दस भाषा में हुआ है। १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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