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________________ उपलब्ध हैं, उन्हें उस काल की बोलचाल का रूप नहीं माना जा सकता। क्योंकि तत्कालीन बोलचाल की भाषा के वे साहित्यिक रूप मात्र हैं। वैदिक संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में काफी समानतायें विद्यमान हैं। वैयाकरणों ने भाषा का संस्कार करके शुद्ध भाषा (संस्कृत) का जो स्वरूप निर्धारित कर दिया गया। वह भाषा लेखकों द्वारा साहित्य की भाषा के रूप में विकसित होती रही। दूसरी ओर लोकभाषा भी अबाध गति से निरन्तर विकसित होती जा रही थी। इस विकास के फलस्वरूप इस भाषा का जो स्वरूप सामने आया उसे 'प्राकृत भाषा' कहा जाने लगा। इस प्रकार संस्कृत के काल में जो बोलचाल की भाषा थी, वही प्राकृत के रूप में विकसित होती रही और उसी का विकसित रूप साहित्यिक प्राकृत के रूप में हुआ। - इन परिवर्तित रूपों के कारण जो नवीन बोलियाँ या भाषायें समय-समय पर लोक में प्रचलित हो जाती हैं। कालान्तर में वैयाकरण उनके लिये एक नियम की, एक रूपता की व्यवस्था करते हैं। वे किसी नवीन भाषा को निर्मित नहीं करते अपितु प्रचलित भाषा की स्वरूप व्यवस्था ही करते हैं। ..... वस्तुतः किसी भी भाषा का स्वरूप निर्मित होने में एक लम्बी अवधि की आवश्यकता होती है। अतः जिस देवभाषा संस्कृत का विकास छान्दस अर्थात् वैदिक-भाषा से हुआ है, उसी प्रकार वैदिककाल में प्रचलित जनभाषाओं से प्राकृत भाषाओं का विकास हुआ है, जिसका प्रमाण प्राचीन वैदिक वाङ्मय विशेषकर प्रथम ऋग्वेद में सुरक्षित 'तितउ', 'प्रकट', 'निकट' आदि कुछ शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है। यह ध्यातव्य है कि विश्व में उपलब्ध प्राचीनतम शास्त्रों में ऋग्वेद की गणना की जाती है। इसीलिए इसे विश्व धरोहर के रूप में मान्य किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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