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________________ झ) अपभ्रंश के प्रति बढ़ता सम्मान प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों के लालित्य तथा माधुर्य के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न विचारधारायें हैं। महाभाष्यकार पतंजलि तो इस प्रकार के विकृत शब्दों के प्रयोग के सर्वथा विरुद्ध हैं। वे तो इस प्रकार के रूपों को शब्द कहने में भी संकोच करते हैं। उन्होंने इनको अपशब्द की संज्ञा दी है। उनके विचार से शब्द कम हैं और अपशब्द बहुत अधिक हैं। एक ही शब्द के बहुत से अपभ्रंश होते हैं। जैसे – गौः इस शब्द के गावी, गोणी, गोता, गोपोतलिका आदि अपभ्रंश रूप पाये जाते हैं। इस प्रकार महर्षि पतंजलि प्राकृत पदों के पक्ष में नहीं प्रतीत होते। पर एक दूसरे आचार्य का विचार है कि - "संस्कृतात् प्राकृतं श्रेष्ठं ततोऽपभ्रंश भाषणम् । अर्थात् संस्कृत से प्राकृत श्रेष्ठ है और प्राकृत से भी अपभ्रंश भाषा अधिक मधुर तथा श्रेष्ठ है। वृद्ध वाग्भट्ट अपभ्रंश शब्दों को अशुद्ध या अपशब्दों के रूप में नहीं स्वीकार करते और अपभ्रंश शब्द से उन भाषाओं को ग्रहण करते हैं, जो अपने अपने देशों में बोली जाती थीं – 'अपभ्रंश स्तुयच्छुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम्' अर्थात् शुद्ध अपभ्रंश वह भाषा है जो अपने-अपने प्रान्तों या देशों में बोली जाती है। ... इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अपभ्रंश पदों के प्रति जो उपेक्षा-भाव महाभाष्यकार को था, वह वृद्ध वाग्भट्ट में नहीं रहा और वे अपभ्रंश को भी शुद्ध ही मानते हैं। राजशेखर ने (बाल रामायण में) संस्कृत वाणी को सुनने योग्य, प्राकृत को स्वभाव मधुर, अपभ्रंश को सुभव्य और भूतभाषा को सरस • कहा है। यही कारण है कि अपभ्रंश भाषा निरन्तर लोकमान्य होती गई और इसमें प्रायः सभी परम्पराओं के विद्वान् ग्रन्थ रचना करके गौरव का अनुभव करते हुए इसे सम्मान प्रदान करते रहे। ९९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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