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________________ का सूचक है और परिवर्तित, विकसित या विकृत होना उसके जीवित रहने का प्रमाण है। तभी तो महाकवि कालिदास ने विकृति को ही जीवित कहा है – “मरणं प्रकृतिः शरीरिणां तिकृति- र्जीवितमुच्यते"। (रघुवंश ८/८७) मध्यकालीन आर्य भाषाओं में प्राकृत, पालि जैसे नाम तो गरिमायुक्त लगते हैं किन्तु “अपभ्रंश" यह शब्द ही कुछ विपरीत मनःस्थिति का बोध कराता है। क्योंकि संस्कृत कोशों और सामान्य अर्थ में भी “अपभ्रंश' शब्द अपभ्रष्ट अर्थात् बिगड़े हुए शब्दों वाली भाषा का बोध कराते हैं। जबकि यह एक भाषा विकास की सामान्य और स्वाभाविक प्रवृत्ति मात्र ही है। वस्तुतः संस्कृत एक परिमार्जित, सुसंस्कृत एवं व्याकरणादि नियमों से आबद्ध भाषा है। अत: 'अपभ्रंशोऽशब्दः स्यात्' इस सिद्धान्त के अनुसार संस्कृत के विशिष्ट मानदण्ड से जो शब्द स्खलित अर्थात् च्युत हो जायें उन्हें अपभ्रंश मान लिया जाता था। वस्तुतः लगता है कि प्रारम्भिक काल में लोक बोलियों आदि में प्रयुक्त शब्दों के लिए “अपभ्रंश" इस शब्द का प्रयोग कर देते होंगे। बाद में जब इन्हीं बोलियों आदि में श्रेष्ठ विद्वानों द्वारा उत्कृष्ट साहित्य निर्मित होने लगा। तब संभवतः इसी साहित्यिक भाषा को अपभ्रंश यह नाम दे दिया होगा। और “अपभ्रंश" इस नाम से ही इसे राष्ट्रव्यापी सम्मान प्राप्त होने लगा, अनेक सम्प्रदायों के विद्वान् इसमें साहित्य रचना करने लगे, तब यह भाषा इसी नाम से लोकप्रिय और प्रसिद्ध हो गयी। ख) अवहट्ट और अपभ्रंश - अपभ्रंश के लिए देशीभाषा, अवहट्ट (ट्ठ), के अतिरिक्त अवहंस, अवब्भंस जैसे शब्दों का प्रयोग भी प्राचीन पुस्तकों में प्राप्त होता है। उद्योतनसूरि की 'कुवलयमाला कहा' में 'अवहंस' के विषय में प्रश्न किया गया है कि वह क्या है – “ता किं अवहंस होइ?" फिर उत्तर देते हुए कहा गया है कि वह शुद्ध हो या अशुद्ध प्रतिहत धारा में प्रवाहित होती हुई प्रणयकुपित प्रियमानिनी के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004257
Book TitlePrakrit Bhasha Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPhoolchand Jain Premi
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2013
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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