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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : 189 5. वाले स्थान को साफ किए बिना उपयोग करना। पौषधोपवास-सम्यग्ननुपालनता :- पौषधोपवास का सम्यक् रीति से पालन न करना। (घ) अतिथिसंविभाग :- यह व्रत निःस्वार्थ सेवा और त्याग का प्रतीक माना जाता है। श्रावक मूल रुप से गृहस्थ होता है और उसके यहाँ अतिथियों का आगमन स्वाभाविक है। प्रायः अतिथि-आगमन आकस्मिक होता है इसीलिए ये अतिथि हैं अर्थात् जिनके आने की तिथि निश्चित न हो, उन्हें अतिथि कहते हैं। गृहस्थ अपने घर में स्वयं के उपयोगार्थ आवश्यक वस्तुएँ रखता है जिन पर उसका स्वतः सिद्ध अधिकार माना गया है। परंतु अतिथि के आ जाने पर अपने उपयोगार्थ वस्तु का समुचित विभाग करके अतिथियों को तृप्त करना उसका कर्त्तव्य है। श्रावक आतिथ्य-सत्कार के इस धर्म से कभी विमुख नहीं होता है। वह भ्रमणशील अतिथियों, श्रमणों को न्यायपूर्वक जो कुछ भी अर्पित करता है, वह अतिथिसंविभाग नामक चतुर्थ शिक्षाव्रत है। संदर्भ :1. . अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। - आवश्यक नियुक्ति, 192 2. आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागभः। प्रमाणनयतत्वा- लोकालंकार, 4-1 आप्तवचनं ह्यागमः।- रत्नकरंडक श्रावकाचार टीका, - (प्रभाचन्द्र), 4; आवश्यक वृत्ति (मलयगिरि), पत्र 48 3. नंदीसूत्र, सूत्र 41 4. सुयसुत्त.......आगमे। अनुयोगद्वारासूत्र, 4; विशेषावश्यकभाष्य, 8/97 आ-अभिविधिना सकल श्रुत विषयव्याप्ति रुपेण, मर्यादया वा यथावस्थित प्ररुपणा रुपया गम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्थाः येन सः आगमः। आवश्यक वृत्ति, मलयगिरि 6. सासिज्जइ जेण तयं........ सत्यं तु सुयनाणं। - विशेषावश्यक भाष्य, 559 7. जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 1, ले. पं. बेचरदास दोशी, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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