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________________ प्रो. सागरमल जैन एवं डॉ. सुरेश सिसोदिया : XIV 26 निरयावलिका 26. विहारकल्प 27. कल्पिका 27. चरणविधि 28. कल्पावतंसिका 28 आतुरप्रत्याख्यान 29. पुष्पिता 29. महाप्रत्याख्यान 30. पुष्पचूलिका 31 वृष्णिदशा इस प्रकार नन्दीसूत्र में 12 अंग, 6 आवश्यक, 31 कालिक एवं 29 उत्कालिक सहित कुल 78 आगमों का उल्लेख मिलता है। ज्ञातव्य है कि आज इनमें से अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। यापनीय और दिगम्बर परम्पराओं में जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण की जो शैली मान्य रही है, वह भी बहुत कुछ नन्दीसूत्र की शैली के अनुरूप है। उन्होंने उसे उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र से ग्रहण किया है। उसमें आगमों को अंग और अंगबाह्य ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है। इसमें अंगों की बारह संख्या का तो स्पष्ट उल्लेख मिलता है, किन्तु अंगबाह्य की संख्या का स्पष्ट निर्देश नहीं है। मात्र यह कहा गया है अंगबाह्य अनेक प्रकार के हैं किन्तु अपने तत्वार्थभाष्य (1/20) में आचार्य उमास्वाति ने अंगबाह्य के अंतर्गत सर्वप्रथम सामायिक आदि छः आवश्यकों का उल्लेख किया है उसके बाद दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प-व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित के नाम देकर अन्त में आदि शब्द से अन्य ग्रन्थों का ग्रहण किया है किन्तु अंगबाह्य में स्पष्ट नाम तो उन्होंने केवल बारह ही दिये हैं। इसमें कल्प-व्यवहार का एकीकरण किया गया है। एक अन्य सूचना से यह भी ज्ञात होता है कि तत्वार्थभाष्य में उपांग संज्ञा का निर्देश है। हो सकता है कि पहले 12 अंगों के समान ही 12 उपांग माने जाते हों। तत्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक, विद्यानन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों ने अंगबाह्य में न केवल उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि ग्रन्थों का उल्लेख किया है, अपितु कालिक एवं उत्कालिक ऐसे वर्गों का भी नाम निर्देश (1/20) किया है। हरिवंशपुराण एवं धवलाटीका में आगमों का जो वर्गीकरण उपलब्ध होता है उसमें 12 अंगों एवं 14 अंगबायों का उल्लेख है, इसमें भी अंगबाह्यों में सर्वप्रथम छः आवश्यकों का उल्लेख है। तत्पश्चात् दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प-व्यवहार, कप्पाकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निशीथ का उल्लेख है। इस प्रकार धवला में 12 अंग और 14 अंगबायों की गणना की गयी। इसमें भी कल्प और व्यवहार को एक ही ग्रन्थ माना गया है। ज्ञातव्य है कि तत्वार्थभाष्य की अपेक्षा इसमें कप्पाकप्पीय (कल्पिकाकल्पिक) महाकप्पीय (महाकल्प) पुण्डरीक और मह्मपुण्डरीक- ये चार नाम अधिक हैं किन्तु भाष्य में उल्लिखित दशा और ऋषिभाषित को छोड़ दिया गया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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