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________________ 104 अंग साहित्य : मनन और मीमांसा सुखी - दुःखी रुप विचित्रताएं क्यों हैं। 24 पुनः यदि शरीर ही आत्मा है तो शरीर से आत्मा को वर्ण, गन्ध, रस, आकार-प्रकार आदि के रुप में पृथक करके स्पष्टतया दिखलाया जाना चाहिये। तज्जीवहच्छरीरवादी जीव और शरीर को तलवार और मयान की तरह, मांस और हड्डी की तरह, हथेली और आंवले की तरह, दही और मक्खन की तरह तिल और तेल आदि की तरह पृथक-पृथक उपलब्ध नहीं करा सकते।235 इसलिये उनका मत स्वतः खंडित हो जाता है। इसके अतिरिक्त तज्जीवतच्छरीरवाद में पूर्वगृहीत महाव्रतों, त्याग, नियमादि की प्रतिज्ञा का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। अतः उनका मत समीचीन नहीं है। अकारवाद या अकर्तृत्ववाद :- सांख्य- योग मतवादी आत्मा को अकर्ता मानते हैं। उनके मत में आत्मा या पुरुष अपरिणामी एवं नित्य होने से कर्त्ता नहीं हो सकता। शुभ-अशुभ कर्म प्रकृति कृत होने से वही कर्त्ता है। सांख्य-योग के मत में आत्मा अमूर्त, कूटस्थ, नित्य एवं स्वयंक्रिया शून्य होने से कर्त्ता नहीं हो सकता । शास्त्रकार की अकर्तृत्वादियों के विरूद्ध आपत्ति इस प्रकार है : (i) आत्मा को एकान्त, कूटस्थ, नित्य, अमूर्त, सर्वव्यापी एवं निष्क्रिय मानने पर प्रत्यक्ष दृश्यमान जन्ममरण रुप या नरकादि गमन रुप यह लोक सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि कुटस्थ, नित्य आत्मा एक शरीर व योनि को छोड़कर दूसरे शरीर व योनि में संक्रमण नहीं कर सकता। (ii) सामान्यतया जो कर्ता होता है वही भोक्ता होता है । परन्तु उन कर्तृत्ववादियों के मत में कर्ता प्रकृति है, भोक्ता पुरुष है। दानादि कार्य अचेतन प्रकृति करती है और फल भोगता है चेतन पुरूष, , जो सर्वथा सिद्धान्त विरूद्ध है। (iii) नियुक्तिकार का मत है कि जब आत्मा कर्त्ता नही है तो बिना कर्म किये सुःख-दुःखादि फलभोक्ता कैसे हो सकता है। इसमें तो कृतनाश एवं अकृतागम दोष प्रसक्त होंगे। (iv) सांख्य के मतानुसार यदि मिथ्याग्रहवश आत्मा को एकान्त निष्क्रिय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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