SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 100 : अंग साहित्य : मनन और मीमांसा के कारणों को भी जानने का निर्देश करता है। स्थानांग, समवायांग, एवं तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यादर्शन (मिथ्यात्व), अविरति कषाय और योग को ही बंधन का कारण माना गया है। सूत्रकृतांग इनमें से अविरति के पांच भेदों :- हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह में से परिग्रह को कर्मबंध का सबसे प्रबल कारण मानता है क्योंकि हिंसाये परिग्रह को लेकर होती हैं, संसार के सभी समारम्भ रुप कार्य मैं और मेरा इस प्रकार की स्वार्थ, मोह, आसक्ति, ममत्व और तृष्णा की वृद्धि से होते हैं और यह परिग्रह है।" अतः वही बंधन का प्रमुख कारण है। बंधन तोड़ने के उपाय के अन्तर्गत सूत्रकार कहते हैं कि __ 1. समस्त सजीव निर्जीव पदार्थ प्राणी की रक्षा करने में असमर्थ तथा . जीवन को क्षणभंगुर मानकर कर्मों के बंधन को तोड़ सकता है अथवा कर्मों से छूट सकता है। "सव्वमेव न ताणइ जीविय चेव संखाए, कम्मुणा व तिउट्टइ121 इस प्रकार सूत्रकृतांग स्वसिद्धान्त (स्वसमय) की दृष्टि से बंधन और उनके कारणों का स्वरुप बतलाकर परसमय (परसिद्धान्त) के सन्दर्भ में दो मुख्य बातें सूचित करता है। एक तो दूसरे मतवादियों या दार्शनिकों की बंधन विषयक मान्यता तथा आत्मा के स्वरुप-बोध के संबंध में उनके मन्तव्य। यहाँ सूत्रकार का आशय उन सिद्धान्त वादियों से है जिनमें से कुछ आत्मा की सत्ता में विश्वास ही नहीं करते या कुछ मानते भी हैं तो उनके सिद्धान्तकार के मत से भिन्न है। इस सन्दर्भ में सूत्रकृतांग में 180 क्रियावादियों, 84 अक्रियावादियों, 67 अज्ञानवादियों एवं 32 विनयवादियों, इस प्रकार 363 पाखंडियों के सिद्धान्तों का खण्डन कर स्वसिद्धान्त की स्थापना की गयी है, यहाँ उनमें से कुछ प्रमुख मतवादों की समीक्षा करेंगे___पंच महाभूतवाद या भूत चैतन्यवाद :- सूत्रकृतांग की गाथा संख्या सात और आठ में वर्णित इस मत का नाम्मोल्लेख नहीं है, नियुक्तिकार इसे चार्वाक मत कहते हैं। अवधेय है कि अर्वाचीन चार्वाक मतानुयायी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy