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________________ 74: अंग साहित्य : मनन और मीमांसा है, वह प्रमाद नहीं करता। महावीर पराक्रम के लिए प्रेरित करते हैं, प्रमाद के लिए नहीं। महावीर के दर्शन में पराक्रम का अर्थ है- क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों को शांत कर देना, शब्द और रुप में आसक्ति न रखना तथा पूरी तरह अप्रमत्त हो जाना (देखें, 338/15)। वैसे भी प्रमाद छः प्रकार के बताए गए है :- . . 1. मद्य प्रमाद 2. निद्रा-प्रमाद . . . 3. विषय प्रमाद 4. कषाय प्रमाद ... 5. द्युत-प्रमाद (प्रतिलेखना) तथा 6. निरीक्षण प्रमाद . . (स्थानांगसूत्र, 6-44) इन सभी प्रकार के प्रमादों से बचना ही पराक्रम है और यह पराक्रम व्यक्ति को स्वयं ही दिखाना है इसके लिए उसे किसी अन्य से कोई सहायता प्राप्त होने वाली नहीं है। प्रमाद न करने का एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति अपनी मुक्ति के लिए स्वयं ही प्रयत्न करे। पुरूषार्थ और पराक्रम वस्तुतः मानव-प्रयत्न में है। जैनदर्शन में किसी भी अतिप्राकृतिक और दैवी शक्ति, जिसे हम प्रायः "ईश्वर" कहते हैं, में विश्वास नहीं किया गया है। मनुष्य का एकमात्र मित्र.मनुष्य स्वयं ही है। मनुष्य अकेला आया है। अकेला ही जाएगा। उसे किसी अन्य से- ईश्वर से भी- कोई सहायता प्राप्त होने वाली नही है। किसी मित्र या सहायक को अपने से बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं हैं महावीर कहते हैं - पुरिसा! तुममेव तुमं मित्त, किं बहिया मित्तमिच्छसि? (136/62) अतः उठो और प्रमाद न करो! अनन्य और परम पद प्राप्त करने हेतु क्षणभर प्रमाद न करो-अणण्ण परमं नाणी, णो पमाए कयाई वि (134/56)। जब तक कान सुनते हैं, आँखे देखती हैं, नाक सूंघ सकती है और जीभ रस प्राप्त कर सकती है, जब तक स्पर्श की अनुभूति अक्षुण्य है - इन नाना रुप इन्द्रिय ज्ञान के रहते पुरुष के लिए यह अपने ही हित में है कि वह सम्यक् अनुशीलन करे (74/75)। बाद में यह अवसर नहीं आएगा। हे पंडित ! तू क्षण को जान और प्रमाद न कर। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004256
Book TitleAng Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year2002
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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