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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश वर्तमान में लोग मानव जीवन को अमूल्य नहीं मानते हैं क्योंकि जन्म से देवगुरु-धर्म की प्राप्ति सहजता से हो गई। परन्तु हकीकत में मानव जीवन हमें सरलता से नहीं मिला, बल्कि अनन्त काल की कठिन मेहनत के पश्चात् यह जन्म मिला है और उसमें भी सातों नरकों में असहनीय वेदना सहन की है। तिर्यंच का जीवन तो हमारी आँखों के सामने है। सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास का कष्ट जीवन भर सहन किया। नियति, काल, कर्म और पुरूषार्थ की असीम कृपा से हमें अन्त में अरिहन्त भगवान् मिले। विचार करें, संसार में हर कार्य के पीछे जब लाईन (कतार) में घण्टों खड़ा रहना पड़ता है, तब वहाँ थक जाते हैं तो विचार करते हैं कि हमारी बारी कब आएगी। परन्तु संसार यात्रा में अभी हमें थकान का अनुभव ही नहीं हुआ, इसलिए भव अटवी में भटक रहे हैं, और भटकते- भटकते अब नम्बर लग गया तो समय का सदुपयोग नहीं कर रहे हैं। विकथा, प्रमाद में समय बिता देंगे तो अमूल्य मानव जीवन यूं ही खत्म हो जायेगा। अनन्तकाल फिर इन्तजार करना पड़ेगा। इसलिए भूतकाल पुनः रिपीट न हो, अतीत का पुरावर्तन न हो जाए, इसका पूरा ध्यान . रखते हुए धर्म में लग जाना चाहिए। जीव और कर्मकासंयोग जीव और कर्म का संयोग अनादि काल से है। किसी समय में बांधा हुआ कर्म किसी विशेष काल में नष्ट हो सकता है। परन्तु आत्मा और कर्म का संयोग अनादि काल से रहा हुआ है। कर्म समय-समय पर बदलते जाते हैं, क्योंकि कर्मों के बन्ध और उदय में बदलाव आता रहता है। फिर भी संयोग-प्रवाह की दृष्टि से कर्म जीव का संयोग अनादि ही कहलायेगा। पूर्व में बांधे गए कर्मों को इस भव में भोगते हैं। फिर इसी भव में बांधे गये कर्मों को जीव फिर अगले भव या कई भवों के बाद भी भोगते हैं। जैसे 1. ऋषभदेव परमात्मा ने अपने पूर्व भव में पाँचों मित्रों ने मिलकर आराधनासाधना की और पाँचों मित्र अगले भव में प्रथम तीर्थंकर, भरत, बाहुबली, ब्राह्मी और सुन्दरी बने। 2. मरीचि के भव में बांधे गये कर्म भगवान् महावीर को अपने अन्तिम भव में उदय में आए। नीच गोत्र कर्म बन्ध के कारण ही देवानन्दा ब्राह्मणी के कुक्षी में 82 दिन तक परमात्मा महावीर को रहना पड़ा। जिस उत्कृष्ट मानव जीवन को प्राप्त करने के लिए देवता लालायित रहते हैं, जब वह हमें प्राप्त हो जाता है और हम इस संसार में आ जाते हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि हमें जीवन भर सुख ही प्राप्त होगा। सुख और दुःख हर व्यक्ति के अपने पूर्व जन्मों के कर्मों 52 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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