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________________ परमात्मा बनने की कला अरिहंतोपदेश काल में भी भारी कर्मी जीव बना रहा। इसलिए देवाधिदेव परमात्मा के दर्शन भी दुर्लभ बन गये। सच्चे मार्गदर्शक नहीं मिले। जो मिले, वे भी गलत मार्ग बताने वाले मिले। सच्चे गुरु का योग भी दुर्लभ था। कभी थोड़ा आगे बढ़ भी जाता तो भौतिक आकर्षण आदि निमित्त से पतन हो जाता। फिर लम्बे समय तक कर्मों की मार खानी पड़ती। कर्मों ने मुझ पर जरा भी दया नहीं की। जुल्म-सजा देते समय एक प्रतिशत भी बचाव नहीं किया। कर्मों के द्वारा दिये गये भयंकर से भयंकर दुःखों को भी कभी समझ से, कभी बिना समझ से सहन किया। जब कर्म कुछ कम हुए, तब अपुनर्बन्धक बना। यानि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का बंध अब यह जीव नहीं करेगा। कहते है कर्मों को कभी शर्म नहीं आती। पर जब जीव कर्मों को तोड़ने का दृढ़ संकल्प कर लेता है तब कर्म का कुछ नहीं चलता। अब मुझे परमात्मा मिले, सच्चे गुरु मिले व अरिहन्त प्ररूपित धर्म आचरण के लिए मिल गया है तो इस अपूर्व अवसर को मुझे छोड़ना नहीं है। अब प्रमाद रूपी बिस्तर का त्याग करना है, बैठे नहीं रहकर कर्मों से लड़ने की पूरी तैयारी करनी है। अब तो बाजी मेरे हाथ में है। केवल सत् (सच्चे) पुरूषार्थ की आवश्यकता है। पुरुषार्थ ही हमारा कर्तव्य इस भव में हमें सर्वश्रेष्ठ देव-गुरु धर्म रूपी उत्तम सामग्री प्राप्त हुई है। पूर्वकाल में तो उत्तम सामग्री का भी अभाव था। यदि मिला भी होगा तो अज्ञान के कारण हम पहचान भी नहीं पाये थे। कितने मुश्किल से पुण्य एकत्र किये होंगे, तब जाकर इतने उच्च शिखर के पास पहुँच पाये। शिखर के पास आकर अब क्या करना है? उसे छू लेना है अथवा लौट जाना है। अनुकूल बाजार, पूंजी, धन्धा सब मिलने पर भी बैठे रहने से मूर्ख ही कहलाये जायेंगे। प्रमाद छोड़कर मेहनत करेंगे तो आत्म धन प्राप्त होगा। वैसे ही संसार उच्छेद के लिए पुरूषार्थ को भी महत्त्व दिया गया है। क्रोध-मान-माया-लोभ, इन चार चाण्डाल चौकड़ी का नाश करना है। ये चारों लुटेरे हैं। इनको नष्ट नहीं करेंगे तो हम हमारे आत्मरूपी धन को कभी प्राप्त नहीं कर पायेंगे। परमात्मा ने अपनी देशना में फरमाया है कि जीव भूतकाल में था, वर्तमानकाल में है और भविष्य काल में रहेगा। जीव त्रिकाल ध्रुव है। ऐसा कोई काल या समय नहीं था, न होगा, जब जीव नहीं था न रहेगा। आज विज्ञान भी कहता है कि जगत् के पुद्गलों के पर्यायों में परिवर्तन होता है। परन्तु एकदम नया परमाणु न उत्पन्न होता है, न पुराना नष्ट होता है। यह सत् बात हमारे शास्त्रों को ही मान्य है, विज्ञान को नहीं। विज्ञान जड़ के विषय में शोध कर रहा है, तो आत्मा की शोध क्यों नहीं करता है? मेरी आत्मा पूर्व में कहाँ थी? 50 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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