SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की कला आद्य मंगल राग औषधि की तरह अप्रशस्त राग से छुड़ाता है। प्रशस्त राग अर्थात् देव- गुरु धर्म पर राग, सम्यक् शास्त्र, तीर्थ, पर्व, धर्मक्षेत्र पर राग होने से पाप का बन्ध नहीं होता है, गलत आकांक्षा का राग ही पाप का बन्ध कराता है। धर्मराग यानि धर्मलेश्या वालों का राग, पापों को काटकर आत्मा का विकास कराता है। अप्रशस्त राग अर्थात् पाप की लेश्यावाला राग । परन्तु प्रशस्त का दिखावा करने से प्रशस्त नहीं बन जाएगा ? दरिद्र यदि साहूकार के कपड़े पहन ले तो कोई साहूकार नहीं बन जाएगा। दरिद्रता की दिशा बदले; धंधा बदले, वृत्ति बदले तो लोग विश्वास करेंगे। पुत्र व पत्नी के ऊपर प्रशस्त राग तभी कहलाएगा जब स्नेह राग व काम राग चला जाएगा। ये साधु अच्छा वासक्षेप डालते है, इससे फायदा होता है, इत्यादि भी अशुभ, अप्रशस्त राग बन जाएगा। संसार के लाभ की अपेक्षा से, हास्यादि मोह की वृत्ति के पोषण की दृष्टि से राग करे तो अप्रशस्त राग होता है। संसार से निस्तार पाने के लिए, मुक्त होने के लिए तथा उसके उपाय से जुड़ने के लिए राग किया जाय तो प्रशस्त राग कहलाता है। इससे धर्म श्या और धर्म का राग, दोनों बढ़ते जाते हैं। धर्म लेश्या की मात्रा, शुद्धता और वेग जितना कम होगा, पुण्य उतना ही कमजोर बंधेगा। धर्म की लेश्या प्रशस्त तो पुण्य भी प्रशस्त और उससे धर्म सामग्री भी प्रभावी मिलेगी। शालिभद्र के जीव की धर्म लेश्या आहार दान के समय बहुत ऊँची थी तो देवता द्वारा नव्वाणु पेटियां रोज मिलती थी । उत्कृष्ट धर्म लेश्या से युक्त होकर जैसा चारित्र लिया, वैसा पालन किया। ऊंची धर्म लेश्या वाला अधूरी साधना की चाह नहीं करता । पूर्व भव में खीर दान के पश्चात् ही गुरु महाराज के प्रति प्रशस्तं राग का प्रवाह बहा । पेट में शूल की पीड़ा हो रही थी, फिर भी दर्द को भूलकर चित्त में गुरु महाराज ही बसे हुए थे। माता क्या कर रही है? मेरे पेट पर दवा लगा रही है या नहीं, इसका भान नहीं; परन्तु गुरु के उपकारों का चिंतन जारी था। अहो! मेरे उपकारी गुरु मुझे नि:संदेह तारेंगे, कितना सुन्दर योग ! खीर दान हेतु महात्मा का सुयोग मिला। ऐसी दान धर्म की अनुमोदना हृदय से कर रहा था। यही प्रशस्त राग है। इसी से वह उच्च वैभव की सामग्री का स्वामी बना । यह सामग्री पापानुबन्धी नहीं होने के कारण मोह में अंधा नहीं बनाती। शालिभद्र ने मात्र इतना जाना कि एक राजा मेरी ही तरह एक मानव है, फिर भी मेरा स्वामी है। विचार बदले । तुरन्त देव प्रदत्त रत्नादि नव्वाणु पेटियाँ भी लोहे की पेटी जैसी लगीं । अप्सरा जैसी बत्तीस पत्नियाँ समस्त संसार की माँ-बहिन जैसी लगने लगीं। जिस पुण्य में कुछ कमी हो, ऐसी पुण्याई मुझे नहीं Jain Education International 32 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy