SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परमात्मा बनने की कला सहज भाव से अरूचि, अपक्षपात, द्वेष आदि होने के पश्चात् इनका प्रतिज्ञाबद्ध त्याग करना ही 'गुण' है। इनमें भी स्वर्गीय सुख की प्राप्ति इत्यादि आकांक्षा से हिंसा का त्याग किया जाए तो उनका कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि ये कोई गुण रूप नहीं कहलाएंगे। इनमें भौतिक सुख-सिद्धियों की अंध-तृष्णा ही मुख्य रूप से रहती है। इनके सुखों के स्थान पर 'ये हिंसादि दुष्कृत्य भव को बढ़ाने वाले हैं, मोक्ष को रोकने वाले हैं, आत्मा की एक अधम निन्दनीय दशा है', ऐसा समझकर इनका त्याग किया जाए, गुण ग्रहण की शुद्ध इच्छा प्रकट हो, अहिंसादि गुणों का आदर हो, तब ही धर्म गुण प्रकट हुआ कहलाएगा। हिंसादि त्याग गुणों को स्वीकार करने की बात तो दूसरे सूत्र में बताये जाएँगे, किन्तु इनके बीजों को वपन करने के उपाय (आधान) तो इस प्रथम सूत्र में ही बताए गये हैं। . बीजाधानयानि क्या? ___कोई भी धर्म अथवा गुण इनके बीजों के वपन करने के पश्चात् ही क्रमशः उन बीजों के अंकुर, नाल, पत्र, फूल इत्यादि उत्पन्न होते हैं। उसके फलस्वरूप उसी रूप में फल व गुण प्राप्त होते हैं। श्री ललित विस्त्ररा शास्त्र में इन गुण रूपी बीजों का वर्णन करते हुए कहा गया है- 'बीज सत्प्रशंसादि'। धर्मगुण की प्रशंसा करना ही इनके बीज कहलाते हैं; अर्थात् धर्मगुण किसी भी प्राणी में देखकर अथवा उपदेश द्वारा श्रवण कर मन में उनके प्रति आकर्षण भाव पैदा होते हैं और भीतर से उद्गार निकल जाते हैं कि, 'अहो! कितना सुन्दर यह धर्म-गुण! कितना सुन्दर हिंसा का त्याग व असत्य का त्याग कहा है ... इत्यादि।' ये ही धर्म गुण की प्रशंसा कहलाती है। धर्म-गुण रूपी फल प्राप्त करने में यह प्रशंसा 'बीज' रूप है। फिर धर्म-गुण प्राप्त करने की अभिलाषा, उत्कण्ठा जगती है कि मुझे धर्म-गुण कब प्राप्त होगा? यदि धर्म-गुण शीघ्र प्राप्त हो जाए तो कितना सुन्दर होगा? ऐसे धर्म-गुण को प्राप्त करने की हार्दिक अभिलाषा 'अंकुर' के समान है। धर्म-गुण कैसे प्राप्त होगा, उसे प्राप्त करने के लिए शास्त्र श्रवण करना, उपाय ढूढ़ना इत्यादि प्रयास करने से जीवन में धर्म-गुण का स्वीकार हो जाना, धर्म-गुण प्राप्त हो जाना ही 'बीज का फल' प्राप्त होना कहलाता है। ये गुण बीज वास्तव में पापप्रतिघात करने के पश्चात् ही प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार पापप्रतिघात में अशुभ अनुबन्ध के आश्रव रोक दिये जाते हैं, उसी प्रकार शुभ अनुबन्ध के कर्म प्रकट हो जाते हैं। वैसे तो प्रति समय कर्मों का बन्ध होना तो चलता ही रहता है, परन्तु तीव्र मिथ्यात्व कषाय आवेश इत्यादि शान्त हो जाने से उन्हीं के स्थान पर चित्त में शुभ भाव प्रकट हो जाते हैं। इस प्रकार शुभ अनुबन्ध अर्थात् शुभ कर्मों की परम्परा 24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy