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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना आराधना हो यहाँ हमें विशेष ध्यान में रखना है कि यह प्रार्थना 'विषय सहित है', 'सविषय युक्त है।' सविषय यानि आलम्बनभूत प्रार्थ्य व्यक्ति वाली है। इसमें आलम्बन सत् अर्थात् प्रार्थना कोई काल्पनिक व्यक्ति के आगे नहीं की जा रही है, बल्कि वास्तविक और प्रभावशाली विशिष्ट व्यक्ति के आगे की जा रही है। इससे प्रार्थना निष्फल जाने वाली नहीं हैं। क्योंकि प्रार्थ्य पुरूष की लोकोत्तर उत्तमता ही उनके आगे प्रार्थना करने वाले हृदय को ऐसा कोमल, नम्र और उदार बना देती है कि जिससे उस हृदय में प्रार्थ्य के अनेक गुणों का आकर्षण हो जाता है। परम पुरूष के आलम्बन से ही ऐसा होता है। यह उनका विशिष्ट प्रभाव है। जिससे उनके आगे शुद्ध भाव से कराई गई प्रार्थना का भी मूल्य कम नहीं। प्रार्थना तो पारस है। यह जीव को गुण स्वर्ण के ज्वलन्त तेज अर्पित करता है। लोहे जैसी गुणहीन आत्मा को सोना जैसा गुण सम्पन्न बनाता है। अनुमोदना के लिए की गई प्रार्थना भी ऐसी सुन्दर भेंट करती है, जिनके योग से क्रमशः निरतिचार शुद्ध चारित्र तक पहुँच कर, जीव अजर-अमर बन जाता है। वाह! यहाँ मानव भव में कितनी महामूल्यवान प्रार्थना की सुलभता है। वस्तु की प्रार्थना, वस्तु के प्रति उत्कृष्ट आकर्षण और अभिलाषा को सूचित करता है तथा आकर्षण के साथ सच्ची अभिलाषा बीज है। इससे फल आएंगे ही, इसलिए प्रार्थना के द्वारा बीज का वपन करो। नागकेतु का जीव पूर्व भव में तेले का तप नहीं कर सका। परन्तु इधर अट्ठम की प्रार्थना, उत्कृष्ट आकर्षण-अभिलाषा से चल रही थी। उधर सोतेली माँ ने इसे नींद में ही झोपड़ी सहित जलाकर राख कर दिया। शुभ भावों के कारण नागकेतु रूप ने मनुष्य भव प्राप्त किया। इतना ही नहीं, जन्म लेते ही पूर्व भव का स्मरण होते ही तेले का तप उदय में आया। तप का आचरण रूपी फल प्राप्त हुआक्रमशः इसी भव में मोक्ष प्राप्त किया। अतः प्रार्थना पारसमणि है। अनुबन्ध के विचार 'अनुबन्ध आत्मा का प्रकाश'। .. जैसे चौमासे में आकाश घने बादलों से घिरा हो तो दिन में भी अंधेरा होता है। और वह घने बादल जब पतले होते हैं, उस समय सूर्य की किरणों का प्रकाश सीधे नहीं आकर मात्र उजाला होता है, और किसी समय बादल में किसी जगह से एक छेद हो, यानि थोड़ा बादल हट जाए, तब सूर्य की किरण सीधे आती है, तब भी उजाला होता है। दोनों समय उजाला ही है, फिर भी दोनों में फर्क है। क्या फर्क है? यही समझना है। Jain Education International For Pers203 Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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