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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना 4. यह सुकृत अनुमोदना किसी भी प्रकार के दोष बिना निरतिचार वाली हो। पाप प्रतिघात और गुण बीजाधान का साधक बनाने के लिए अनुमोदना का यह सुन्दर और सटीक प्रवृत्तिक्रम बताया गया है। उन्नतिकारक साधना के अंग अनुमोदना, कोई भी सामायिकादि धर्मानुष्ठान, क्षमादि गुण या दानादि सुकृत क्या हैं? इनकी साधना करने के लिए की गई प्रवृत्ति के ये व्यवस्थित अंग बताए गए हैं1. शास्त्रोक्त विधि का पालन अर्थात् शास्त्र-ज्ञानीजनों के वचनों के प्रति ज्वलंत सापेक्ष भाव कि मुझे इस विधि अनुसार ही साधना करनी है, शास्त्रवचन की थोड़ी भी उपेक्षा कर के नहीं। 2. विशुद्ध अध्यवसाय, अर्थात् हृदय में निर्मल पवित्र भाव-भावना विचार करनी; तथा 3. शक्ति अनुसार सम्यक् क्रिया; अर्थात् जिसकी साधना करनी है, उसमें सही प्रवृत्ति। . समभाव की साधना के लिए विधि अनुसार सामायिक के अनुष्ठान में जुड़ना, इसकी प्रवृत्ति करना। उसी प्रकार4. इस प्रवृत्ति का निरतिचार पालन, इसमें जरा भी दोष नहीं लगने देना। इन चारों में से एक भी कम नहीं चलेगा। क्योंकि पहले में विधि का आग्रह जिनवचन के प्रति सापेक्ष भाव को सूचित करता है; और सर्व-प्रवृत्ति में ही नहीं बल्कि पूरे जीवन भर के लिए जिनाज्ञा हर कदम-कदम पर आगे रखना चाहिए। अर्थात् 'मेरे लिए पहले जिनाज्ञा', फिर दूसरा ऐसा बन्धन होना चाहिए, 'जिनाज्ञा ही तारने वाली है।' हृदय से ऐसी पुकार जरूरी है। नहीं तो स्वच्छन्द प्रवृत्ति होने से अज्ञान चेष्टाएँ होंगी। इससे भव पार नहीं होगा। _ जिनाज्ञा का भार हृदय में रखने के पश्चात् पुनः उसमें विषयों पर आसक्ति, ईर्ष्या, मद, कठोरता, माया, स्वार्थांधता इत्यादि कलुषित भाव नहीं रख सकते। नहीं तो यह जिनाज्ञा का बल कम कर देगा। सत्ता-समृद्धि की आकांक्षा भी नहीं रख सकते हैं। देव-गुरु और क्रिया के प्रति हृदय से भावभरी भक्ति और बहुमान चाहिए। तब इन दोनों के होते हुए प्रमाद तो चलेगा ही कैसे? धर्म प्रवृत्ति का पक्का पुरूषार्थ चाहिए। नहीं तो पाप का पुरूषार्थ चलता रहने वाला है। वहाँ हृदय के भाव शुष्क बन जाने वाले हैं। तब अनादिकाल की आहारादि संज्ञाएँ और कषाय संज्ञाओं की आहारादि की प्रवृत्ति से जमे हुए कुसस्कार, इससे विरूद्ध तप, दान इत्यादि धर्म प्रवृत्ति के पुरूषार्थ से ही दबते जाते हैं। खाऊ-खाऊं 201 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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