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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना परोपकार की भावना से जो कुछ करे, उसमें पुण्य का ही बंध होगा। परन्तु पौद्गलिक स्वार्थ होगा, यश-कीर्ति नाम की चाहना हो, सत्ता भोगने का रस हो और इन्हें ही केन्द्र में रखकर कोई भी प्रवृत्ति करने में आएँ तो 100 प्रतिशत पाप का ही बध होगा।' ऐसा नहीं मानेंगे तो पुजारी, शिल्पी इत्यादि सभी को पुण्य ही बंधेगा। परन्तु पैसों के लिए पूजा करना, मूर्ति का घड़ना इत्यादि कार्य होने से पुण्य का बंध नहीं होता। प्रणिधानशुद्धि ' हे सर्वश्रेष्ठ गुणों से युक्त अरिहंत परमात्मा! • आपके अचिन्त्य सामर्थ्य बल से मेरी ये सुकृत अनुमोदना सूत्रानुसार विधि पूर्वक ० ० यह अनुमोदना शुद्ध आशय वाली और कर्मों का नाश करने वाली हो। यह अनुमोदना सम्यग् क्रिया स्वरूप बनकर आपकी आज्ञा को स्वीकार करने वाली ० यह सुकृत अनुमोदना किसी भी प्रकार के दोष बिना निरतिचार बनी रहे। प्रणिधान _ 'प्र+नि' उपसर्गपूर्वक 'या' धातु से प्रणिधान शब्द बना है। इसका संक्षिप्त अर्थ है कर्त्तव्यता का संकल्प। वस्तुतः कर्त्तव्यता का संकल्प करना ही प्रणिधान कहा जाता है। दृष्टांत रूप में आपने 500 रुपये का दान दिया। यह प्रवृत्ति है दान की। दान अर्थात् धन का त्याग। आपको आपकी संपत्ति का हक, मालिकी का स्वेच्छा से त्याग करना, इसका नाम दान। दूसरे की भक्ति-परोपकार करना या उनके संकट का निवारण करना या किसी भी कारण से धन देना अर्थात् धनदान दिया कहलाएगा। दान के भी बहुत प्रकार होते हैं। अब आपका धन त्याग करने लायक है, संग्रह करने लायक नहीं है, ऐसा संकल्प हो तो धन दान में प्रणिधान है, ऐसा कहा जाएगा। यही शत्-प्रतिशत् सही अर्थ है। उपवास करते हैं, जिसमें आप चौबीस घण्टे आहार नहीं लेते। चौविहार उपवास हो तो पानी भी नहीं लेते हैं। आहार पानी के त्याग को कर्त्तव्य मानते हैं, और खाने को अकर्त्तव्य मानें तो प्रणिधान कहा जाता है। __प्रणिधान का अर्थ आप क्या समझते हैं? आपको करने लायक, आचरण करने लायक, प्राप्त करने लायक जो लगता है, और उसका ही कर्तव्य रूप में मानसिक संकल्प हो, तो वह वस्तु प्रणिधान कहलाएगी। वर्तमान में आपके जीवन में बहुतं प्रणिधान है, जैसे 198 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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