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________________ परमात्मा बनने की कला सुकृत अनुमोदना ___भावना में आगे बढ़ते-बढ़ते सोच रहे हैं गुणसागर कुमार, बस कल तो मैं साधु बन जाऊँगा। श्रुत-ज्ञान का अभ्यास करूँगा। समता रस का पान करूँगा। काम-कषाय को पराजित करूँगा। ये विवाह हुआ कि मैं मुक्त! फिर श्रमण जीवन में कोई बन्धन नहीं। आराधना साधना में मस्त रहकर आत्ममस्ती का आनन्द प्राप्त करूँगा। भावधारा में आगे कूच करते-करते गुणसागर कुमार श्रपक श्रेणी में आरूढ़ हो गए। घनघाती कर्मों का नाश हो गया और हस्त-मिलाप करते-करते गुणसागर कुमार को केवलज्ञान हो गया। - कैसा चमत्कार कर दिया भावधर्म ने? कभी न बना इतिहास बनाकर रख दिया भावना धर्म ने। ...और उन कन्याओं ने क्या कहा था? ___ 'जे करशे ए गुणनिधि ते अमे आदरशुं रे।' कन्याओं ने भी गुणसागर के मार्ग पर आगे कूच किया। वे भी महापंथ की पथिका बन गई। उन्हें भी भावना धर्म ने केवलज्ञान की प्राप्ति करवा दी। वर को भी केवलज्ञान और कन्याओं को भी केवलज्ञान। भोग के स्थान परयोग गुणसागर को जब केवलज्ञान प्राप्त हुआ, तुरन्त देवतागण आते हैं और चंवरी मंडप के स्थान पर स्वर्ण का सिंहासन रचते हैं। केवलज्ञानी गुणसागर वहाँ सिंहासन पर विराजमान होकर देशना फरमाते हैं। शादी का समूचा वातावरण केवली भगवंत की देशना श्रवण में बदल गया। लोग विचार करने लगे कि गुणसागर ने भोग को कैसे योग में कैसे परिवर्तित कर दिया। कैसी गजब की साधना की होगी? सभी के माता-पिता अपने पुत्र-पुत्री की केवली स्थिति को देखकर स्वयं के जीवन को धिक्कारते हैं। अपने सफेद बालों में धूल पड़े। धिक्कार है हमारी आत्मा को। इतनी बड़ी उम्र हो गई, बालों के रंग काले से सफेद हो गये, फिर भी हृदय सफेद क्यों नहीं हुआ? अन्तरात्मा तो भीतर से काली ही है। हमें संसार से वैराग्य क्यों नहीं जगा? भीतर ही भीतर अपने-अपने दुष्कृत्यों की गर्दा करते-करते उन्होंने भी केवल ज्ञान को प्राप्त कर लिया। ___गुणसागर केवली की देशना के पश्चात् सुधन श्रेष्ठि, जो व्यापार हेतु आया था, वह अपनी आँखों से कौतुक सदृश केवलज्ञान की प्राप्ति को देखकर आश्चर्य करते हुए केवली भगवान् से पूछता है- 'हे भगवन्! ऐसा कौतुक / आश्चर्य मैने अपनी आँखों से प्रथम बार देखा है। ऐसा न कभी सुना, न देखा। यह दृश्य आँखों से ओझल नहीं हो सकता है। कैसा है हमारा जिनशासन। परिणय को केवलज्ञान में बदल देना। ऐसा अद्भुत Jain Education International For Persona186rivate Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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