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________________ रमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा आचरण हैं। मुक्ति में सुख कैसा? ऐसी शंका करने वाले को यह ख्याल नहीं है कि वहाँ पर किसी भी प्रकार की तृष्णा नहीं है। खाने-पीने का कष्ट भी नहीं है। इसलिए तो वहाँ सच्चा सुख है। कोई कर्म नहीं है, अपेक्षा नहीं है, इसलिए ही अनन्त स्वाधीन सुख है। ये सुख काल्पनिक सुख नहीं,बल्कि वास्तविक सुख हैं। काल्पनिक तो इन्द्रियों के विषयों का सुख है, क्योंकि जिस वस्तु में जैसा सुख प्राप्त होता है, वैसा ही सुख अन्य मनुष्य को या दूसरे समय उसी वस्तु में स्वयं को भी प्राप्त नहीं होता है। इसलिए संसार में सच्चा सुख कहाँ है? धर्म स्थान के प्रति भी विपरीत आचरण में अनाचरणीय और अनिच्छनीय आचरण को इस प्रकार समझना होगा? इसमें माता-पिता से लेकर कोई भी जीव के प्रति कृतघ्नता, द्रोह, ईर्ष्या, पीड़ा, अपमान, इत्यादि अनाचरणीय कहलाते हैं। मार्ग साधन की आशातना, अवगणना, नाश इत्यादि भी अनाचरणीय कहलाते हैं। संक्षिप्त में- जो कोई मिथ्यामति अज्ञान, अप्रशस्त राग-द्वेष, हास्य-मसखरी, हर्षोन्माद, असद् खेद या क्रोधादि कषाय वश जीव या जड़ के प्रति बोला गया या विचारा गया, ये सभी अनाचरणीय अनिच्छनीय गिने जाते हैं। इनकी गर्दा करनी चाहिए। . अपने द्वारा हो गये दुष्कृत्यों का सच्चा 'मिच्छामि दुक्कडम्' करना हो और दुष्कृत्यों के संस्कार और दुष्कृत्यों से बंधे हुए कर्मों को आत्मा में से फेंक देना हो तो इतना जरूरी है कि 1. अहंभाव के त्याग के साथ ही सच्चे पश्चात्ताप के योग्य कोमल और नम्र हृदय; 2. दोषों पर तिरस्कार भाव; 3. आत्मा के प्रति जुगुप्सा; और 4. दोष सेवन करने वाले को पोषण करने वाले दुष्कृत्य के मूल में रहे हुए कषाय की शान्ति के साथ क्षमादिधर्म का आलम्बन जरूरी है। . भगवान अरिहंत देव से लेकर सर्व जीव और सर्व साधन के प्रति चाहे जिस प्रकार से जन्म जन्मांतर में दुष्कृत्य किये हों, उनके इस पद्धति से निन्दा, गर्हा, दुगंच्छा, पश्चात्ताप हो, तो ऐसे दुष्कृत्य को सहजता से करवाने वाला मूलभूत संसार और अतत्त्व के प्रति रूचिभाव रूपी पाप उसका प्रतिघात क्या नहीं होगा? . कहने का तात्पर्य यही है कि संसार के सभी दुष्कृत्यों की यदि सही रूप से गर्दा होगी तो इन पापों का प्रतिघात होगा ही। Jain Education International 167 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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