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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा पर वह टूट कर गिर जाता था, वैसे ही पूरी जिन्दगी धन एकत्रित करते हैं और अन्त में उसे छोड़कर चले जाते हैं। दूसरे भव में वैसे ही खाली हाथ जन्म लेते हैं। पुनः एक से कमाना शुरु करते हैं। आयुष्य कर्म का कोई भरोसा नहीं है। पिता जी जीवित हैं और पुत्र दुनियाँ से अलविदा हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण संसार में देखने को मिलते हैं। जगत् में सभी जीव दूसरों के लिए राम-राम करने जाते हैं, फिर भी स्वयं अभिमान रहता है कि मुझे कुछ नहीं होने वाला है। . अब हमें यह निश्चिय करना है कि जो परलोक में भी हमारे साथ चलेगा, उसी पुण्य का संग्रह हमें करना है। क्योंकि ज्ञानी भगवन्त फरमाते हैं- जो जितना धन संग्रह करेगा, उसके सम्पूर्ण पाप का पार्सल भवान्तर में भी साथ जाएगा। जैसे वट वृक्ष का मूल जीव अपने वनस्पति काय के शरीर में स्थिर था। जब मूल जीव मर जाता है और अन्य गति में पुनः उत्पन्न हो जाता है, तब उसी वृक्ष की लकड़ी को काटकर उससे कुल्हाड़ी व बाण बनाते हैं। उससे फिर लकड़ी काटने का व बाण से शिकार करने का कार्य करते हैं। ...तो यह हिंसा का पाप किसे लगेगा? शिकारी+वृक्ष के जीव, दोनों को पाप लगेगा। यहाँ अधिकरण आदि का पाप लगता है। यहाँ पापों का जितना त्याग करके जाता है, उतना ही कर्मों के भार से जीव हल्का होता है। अर्थ-काम में डूबाजीव . श्रावक सदैव सादगीमय जीवन जीना पसन्द करता है परन्तु मूर्ख जीव अपना बचपन खेलने में व जवानी मौज-शौक में बिता देता है। जबकि श्रावक तो सदैव श्रमण जीवन की उपासना करने वाला होता है। अतः योग्य अवसर पर चारित्र की साधना कर लेनी चाहिए; किन्तु अर्थ और काम में फंसा जीव इनसे सदैव अतृप्त ही रहा और संसार में परिभ्रमण करता रहा। सम्पूर्ण जीवन उसी के पीछे पागल बन समाप्त कर देता है, और अन्त में रोते-रोते परलोक जाना पड़ता है। एक करोड़ रुपये गिनने से रुपये साथ नहीं जायेंगे, किन्तु एक नवकार भी शुद्ध मन से गिन लेता है तो वह परलोक में साथ जाता है। साधुजनों की भक्ति व सेवा सुश्रूषा की होगी तो वे सभी पुण्य अवश्य साथ चलेंगे। इसी से भवान्तर में साधुता का जीवन प्राप्त होता है। जिनशासन कीसेवा भयंकर आरम्भ समारम्भ करने वाले जीवों का उद्धार अनन्त उपकारी परमात्मा से ही हो सकता है। इसलिए जिनशासन की स्थापना की गई है। सात-क्षेत्र दान के लिए बताये गये हैं। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, जिनागम, जिनबिम्ब एवं जिनमंदिर। ये सातों क्षेत्र Jain Education International 159 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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