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________________ परमात्मा बनने की कला दुष्कृत गर्दा दुष्कृत गर्दा हे प्राणेश्वर परमात्मा! इस तरह अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण स्वीकारने से मेरी बुद्धि निर्मल बनी है। अब मुझे पापकार्यों और दुष्कर्मों के प्रति दुर्भाव पैदा हुआ है। भूतकाल में किये पाप-कर्मों के लिए मैं पश्चाताप पूर्वक पंच-परमेष्ठी के समक्ष गर्दा-निंदा शुरू करता हे परमेष्ठी भगवन्त! ___ इस संसारवास में कभी भी अरिहंत भगवन्तों, सिद्ध भगवन्तों, आचार्य भगवन्तों, उपाध्याय भगवन्तों, साधु भगवन्तों, साध्वी जी भगवन्तों की आशातना की हो, दूसरे भी धर्म के स्थान रूप गुणाधिक ऐसे माननीय और पूजनीय आत्माओं के प्रति अयोग्य वर्तन किया हो, जन्म-जन्मांतर में प्राप्त हुए, माताओं, पिताओं, भाइयों, मित्रों और उपकारियों के प्रति मैंने जो भी विपरीत आचरण किया हो, उनका दिल दुःखाया हो तो उसके लिए माफी मांगता हूँ, क्षमा चाहता हूँ। हे प्रातः स्मरणीय परमात्मा! . मैं कितने को याद करूँ। सामान्य रूप से कहूँ तो इस विश्व में मोक्ष मार्ग में रहे हुए अथवा मिथ्यात्वरूपी उन्मार्ग में रहे सब जीवों के प्रति अथवा उन्मार्ग के साधनरूप तलवार आदि अधिकरणों के प्रति, अविधि से परिभोग करने में जो कोई विपरीत आचरण किया हो, नहीं करने लायक तथा नहीं इच्छने योग्य ऐसा पापानुबन्धी पाप आचरण किया हो; फिर वह पाप इस जन्म में या जन्मांतर में किया हो, वह पाप सूक्ष्म हो या स्थूल हो, मन से, वचन से, काया से, राग से, द्वेष से, मोह से किया हो, करवाया हो, अनुमोदन किया हो; वह संब अवश्य निन्दा करने योग्य है। दुष्कृत्य स्वरूप है। छोड़ने जैसा है। ये बातें मैंने एक मात्र मित्र जैसे मेरे गुरु भगवन्त के वचनों से सुनी हैं और ये बातें ही ठीक हैं, ऐसा मेरे हृदय में स्थित हो गया है। इसलिए हे अरिहंत परमात्मा! हे सिद्ध भगवान! आपके समक्ष मैं इन पापों और दुष्कृत्यों की निन्दा करता हूँ। मेरे ये सभी पाप मिथ्या हों, मिथ्या हों, मिथ्या हों। हे प्रभु! उन भूलों के प्रति बार-बार मिच्छामि दुक्कड़म्, मिच्छामि दुक्कड़म्, मिच्छामि दुक्कड़म्। 139 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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