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________________ परमात्मा बनने की कला । चारशरण हैं।' आचार्य भगवन्त समझते थे कि सभी देवों का स्वरूप जानकर स्वयं की बुद्धि से ही उसे निर्णय कर लेना चाहिए कि कौन से देव श्रेष्ठ हैं? ___धर्म किसी पर थोपने की वस्तु नहीं है, अन्दर से लगने की / छूने की चीज है। इसलिए वीतराग परमात्मा सर्वदोषों से रहित हैं और सर्वगुणों से युक्त हैं, ऐसा उसे समझ आ जाएगा। तब वह उसका मूल्यांकन कर सकेगा। यही बात 'भक्तामर' की सत्ताईसवीं गाथा में कही गई है को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! दोषैरूपातविविधाश्रय जात गर्वैः स्वप्नांतरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि॥ अर्थात् हे मुनीन्द्र! दुनियाँ के समस्त गुण अन्य किसी में नहीं प्राप्त होने से तुझमें ही निहित हैं, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है। बल्कि विविध जीवों में आश्रय लेने से गर्विष्ठ बने दोषों से युक्त अन्य की तरह आप को स्वप्न में भी हमने देखा नहीं है। इससे निश्चित होता है कि वीतराग देव श्रेष्ठ हैं। वीतरागता भगवान शंकर के पास रहने गई तो पार्वती पास में बैठी होने से वह पुनः वापस आ गई। निर्भयता शस्त्रधारी देवों के पास रहने गई तो वहाँ भी भयसूचक शस्त्रों को देखकर वह भी फिर से लौट कर वीतराग के पास आ गई। इस प्रकार श्री वीतराग प्रभु सर्वगुणयुक्त हैं और सर्वदोषमुक्त हैं। उनके द्वारा बताया गया अंहिसामय धर्म ही श्रेष्ठ है। 1444 ग्रन्थों के रचयिता हरिभद्रसूरि जी ‘महाराज कहते हैं पक्षपातो न मे वीरे, न च द्वेषः कपिलादिषु। · युक्तिमद् वचन यस्य, तस्य कार्य परिग्रहः॥ . अर्थात् मुझे वीरप्रभु पर राग नहीं है, और न ही कपिल, गौतम, कणाद इत्यादि पर द्वेष है। तर्क की सीढ़ी पर चढ़ते हुए मुझे जो वचन युक्तियुक्त लगता है, उसे मैं स्वीकार करता हूँ। जो श्रद्धालु हैं, उनको क्रिया के माध्यम से धर्म दे सकते हैं। परन्तु जो श्रद्धालु नहीं . हैं, बुद्धिजीवी हैं, बुद्धिशाली हैं, उनको पदार्थ के माध्यम से धर्म देने में सफलता मिलती कर्मवन दाहक धर्म ज्ञानावरणादि कर्मरूपी वन को जलाकर रखने वाला होने से अग्निसमान है। Jain Education International 129 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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