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________________ परमात्मा बनने की कला धर्म की शरण हे जिनधर्म ! देव दानव और मानव से आप पूजित हैं। हे जिनधर्म! मोहरूपी अंधकार का नाश करने के लिए आप सूर्य समान हैं। हे जिनधर्म! रागद्वेष रूपी विष का नाश करने के लिए आप उच्चस्तर के मंत्र हैं। हे जिनधर्म! सभी जीवों के कल्याण में आप ही एक मात्र कारण हैं । हे जिनधर्म ! कर्मरूपी वन को जलाने के लिए आप दावानल के समान हैं। हे जिनधर्म ! आप हमारे सिद्ध स्वभाव को प्रकट करने वाले हैं। हे जिनधर्म! आप अरिहंत भगवान के श्रीमुख से प्रकट हुए हैं। हे जिनधर्म ! हे निराधारों के आधार! हे अनाथों के नाथ! विश्व में सर्वोत्कृष्ट जिनधर्म! मैं भव-भव तक आपकी ही शरण स्वीकार करता हूँ। चार शरण चार गति और चौरासी लाख जीव योनियों के भवभ्रमण में फंसा हुआ मैं, हे जिनधर्म ! आज से मन, वचन और काया से आपकी शरण स्वीकार करता हूँ। अब यहाँ चौथा शरण बतलाते हैं । मात्र साधु की शरण स्वीकार करता हूँ, इतना ही नहीं बल्कि केवलज्ञानी भगवन्त द्वारा प्ररूपित शुद्ध धर्म की मैं शरण स्वीकार करता हूँ। वह धर्म कैसा है ? कहाँ से आया ? सुर-असुर - मनुष्य से पूजित सुर यानि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों से, असुर अर्थात् भवनपति और व्यन्तर देवों से, वैसे ही मनुष्यों अर्थात् गगनगामी विद्याधरों से पूजित धर्म है। ये विशेषण ऐसी श्रद्धा करवाते हैं कि जगत् की ऋद्धि-समृद्धि इत्यादि देने वाले सेठ साहूकार या राजा से भी ज्यादा यह धर्म मुझे अधिक मान्य है। क्योंकि धर्म तो देवों को भी मान्य और पूज्य है। ऐसे ही अति पूज्य उच्चतम धर्म की शरण प्राप्त करने का मुझे गौरव है, मेरा अहोभाग्य है कि मुझे ऐसा शुद्ध धर्म मानने व पूजने के लिए मिला है। मोहरूपी अंधकार के नाशक यह धर्म मोहरूपी अंधकार को मिटाने के लिए सूर्य समान है । 'मोह' अर्थात् सत्-असत्य, असली-नकली, तारक-मारक, हित-अहित, स्व-परक, कार्य-अकार्य इत्यादि के विवेक का अभाव, अविवेक और इससे आत्मा की होने वाली मूढ़ अवस्था । यह मोह निश्चित ही वस्तु के सच्चे, उदासीन, तटस्थ, निष्पक्ष स्वरूप के दर्शन नहीं करने देता है। इसलिए यह मोह अंधकार के समान है। श्रुत-सम्यक्त्व और चारित्रं रूप त्रिपुटी धर्म Jain Education International 126 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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