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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण देर आनन्द और ले लूँ, इतने मात्र के संगीत श्रवण सुख का फल इसी भव में सेवक को मिला। वासुदेव ने जो कर्म किया, वह अंतिम भव में प्रभु को मिला। पच्चीसवें भव में परमात्मा के जीव द्वारा ग्यारह लाख अस्सी हजार छः सौ पैंतालीस मासक्षमण की तपस्या करने पर भी कर्म समाप्त नहीं हुए। निकाचित बांधे गए कर्म अन्तिम भव में भी उदय में आए। ग्वाले ने परमात्मा के कानों में कीलें ठोंकी और उन्हें समता से परमात्मा ने सहन किया, तब वे कर्म समाप्त हुए। जिनशासन ही हमें आत्मोत्थान का सच्चा मार्ग बतलाता है। साधु भगवन्तों के पंचाचार को जानने एवं पालन करने को तत्पर बनें। ये निम्न प्रकार हैंज्ञानाचार - स्वयं पढ़ें, दूसरों को पढ़ायें व ज्ञान ज्ञानी की आराधना करें। दर्शनावार - साधु का विनय, भक्ति, वैय्यावच्च करें। चारित्राचार - चारित्र के आचार व क्रियाओं का पालन करें। तपाचार- छः बाह्य, छः आभ्यन्तर तप का पालन करें। वीर्याचार - शक्ति अनुसार आराधना में वीर्य और सत्व का उपयोग करें। साधु सदैव दूसरों को सहायता प्रदान करते हैं। भलाई करते हैं। संसार के सुखों में, पैसे कमाना, दुकान या फैक्टरी का मुहूर्त निकालना आदि में नहीं बल्कि मोक्ष मार्ग में . सहायता प्रदान करते हैं। संसार के सुख ज़हर के समान हैं। साधु ज़हर खिलाने में सहायता प्रदान नहीं करते हैं। पैसा कमाना पापों का बध करना है। साधु संसार क्रिया में नहीं, धर्म-क्रिया में सहायक बनता है। स्वयं निर्लिप्त कमलवत् जीवन जीते हैं, अन्य को भी उससे ऊपर उठने के लिए प्रेरणा प्रदान करते हैं। ज्ञान-ध्यान-अध्ययन में रत, एकाग्रचित्त होकर जीवन को शान्त-प्रशांत बनाते हैं। वे हर समय उच्च भावों में बढ़ने वाले होते हैं। वैयावच्च, भक्ति के भावों में मन को विशुद्ध बनाते हैं। इन्हीं साधु भगवन्तों का मुझे शरण प्राप्त हो। शास्त्र में मात्र शरण स्वीकार की ही बात नहीं कही गई है बल्कि किस प्रकार शरण स्वीकार करना, इसका भी व्यवस्थित वर्णन शास्त्रकारों ने किया है। सचमुच, उनका हम पर बहुत बड़ा उपकार है। प्रत्येक शरण को विशेषणों से विभूषित करके उनके गुणों से हमें परिचित कराया है। ये विशेषताएँ हमारे शुभ भावों में वृद्धि कराती हैं। सूत्रों में अनेक प्रकार की संपदा समाहित कर हमें एक साथ प्रदान किया है। अब उस संपदा को प्राप्त करने हेतु श्रम नहीं करना है, बल्कि उसका सही उपयोग करने मात्र का प्रयत्न जीवन में हमें करना होगा। मनुष्य भव प्राप्त हो गया, अब शुभ भावों को प्राप्त करना है, सुप्रणिधान करना है। Jain Education International 124 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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