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________________ परमात्मा बनने की कला चार शरण संसार से बचाते हैं। युगों-युगों तक जन्म-जरा-मृत्यु के जटिल जंजाल से संरक्षण कराते हैं। इस विशेषण के प्रति श्रद्धा यह बताती है कि मैं नाथ तो अरिहन्त देव को ही मानता हूँ। अभी जगत् में कोई करोड़ों की ऋद्धि देकर दरिद्रता से बचाते हैं, औषध देकर महारोग से बचाते हैं, सहारा देकर निराधार से बचाते हैं, सेवा करके असुविधा से बचाते हैं, रक्षण देकर चोर, डाकू से बचाते हैं पर इनसे क्या बहुत खुश होना? इनसे क्या जरा या मृत्यु का भय टल गया? फिर नये जन्म-मरण आदि के दुःख दूर हो गये? दुर्गति को ताला लग गया? भविष्य में उत्पन्न होने वाले रोग, दारिद्र-दुःख दूर हो गये? नहीं। इनको दूर करने की शक्ति तो मेरे अचिंत्य प्रभावी अरिहंत देवाधिदेव में ही है। कहाँ सामर्थ्य त्रिलोकीनाथ का और कहाँ ये स्वयं अनाथ। कमठ के काष्ठ से पार्श्व प्रभु ने जलते सर्प को बाहर निकाला व प्रभु द्वारा नवकार मन्त्र सुनकर सर्प ने भी प्रभु की शरण स्वीकार कर ली और मरकर धरणेन्द्र बना। दुर्गति टली। ये अरिहंत के बिना कौन करता? सर्प भी प्रभु की शरण पाकर धरणेन्द्र बन गया। उत्कृष्ट पुण्य के स्वामी ___ सर्व पुण्यों में श्रेष्ठ पुण्य, तीर्थंकर नाम कर्म, श्रेष्ठ यश, सौभाग्य आदेय आदि पुण्य के प्राग्भार वाले हैं। इनके अद्भुत योग से, ये माता के गर्भ में आते हैं, तभी इन्द्रों के अचल सिंहासन कम्पायमान हो उठते हैं। जन्म समय 56 दिग्कुमारिकाएं पलना झुलाती हैं। 64 इन्द्र देवता सहित प्रभु का जन्माभिषेक महोत्सव करते हैं। जन्म से रोग, मैल, पसीने से मुक्त कंचन जैसी काया, सुगन्धी श्वासोच्छवास, अदृश्य आहार-निहार आदि विधि, गाय के दूध सदृश्य रूधिर और अविभत्स मांस, इन अतिशय से सुशोभित, केवलज्ञान के पश्चात् अपूर्व अष्ट-प्रतिहार्य, समवशरण, चलते समय चरणों के नीचे स्वर्णकमलों की ऋद्धि वाले, देवेन्द्रों-नरेन्द्रों से सेवित कुल 34 और वाणी के 35 अतिशयों से युक्त ये प्रभु होते हैं। जगत् में दूसरे पुण्य, इस पुण्य के आगे कुछ महत्त्व नहीं रखते हैं। भरत चक्रवर्ती का पुत्र मरीचि ऋषभदेव प्रभु की दैविक रजत-स्वर्ण-रत्नमय समवसरण की अलौकिक समृद्धि के पुण्य-देखकर विचारों में आगे बढ़ गये। इससे उनको जगत् के पुण्य पर वैराग्य उत्पन्न हो गया। वहीं मरीचि ने दीक्षा अंगिकार की। भवों के अन्त में वे ही महावीर प्रभु बने। ऐसे प्रभु के एकान्त रूप से शरण में जाने से हम भी प्रभु बन सकते हैं। ये सभी इसी पुण्य की विशिष्टताएं हैं। तो क्या दूसरे पुण्यों का स्वागत, सम्मान या गीतगान, इच्छा करना क्या हमको शोभा देगा? अहो! कितने उत्कृष्ट पुण्य को धारण करने वाले देवाधिदेव की प्राप्ति मुझे हुई। इस पुण्य को देखकर जगत् में दूसरे आकर्षण व Jain Education International 100 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004255
Book TitleParmatma Banne ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyranjanashreeji
PublisherParshwamani Tirth
Publication Year2000
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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