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________________ ४३४ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन 1 क्षत्रिय राजा लोग युद्ध-कौशल तथा मनोरंजन आदि के लिए चतुरंगिणी सेना के साथ मृगया - विहार के लिए जाया करते थे । ये शहर के समीप वर्तमान उद्यानों में जाकर स्त्रियों के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए मनोरंजन भी करते थे । धनिक व्यापारी लोग नाव से समुद्र पार करके विदेश में व्यापार करने के लिए भी जाते थे । समुद्रयात्रा में विघ्नों की संभावना अधिक रहती थी । यह समुद्रयात्रा करने का सामर्थ्य प्रायः व्यापारियों में ही अधिक था । कभी-कभी वणिक् स्त्रियां भी समुद्रयात्रा करती थीं । समुद्रयात्रा में इतना समय लगता था कि कभी-कभी गर्भवती स्त्रियां रास्ते में प्रसव भी कर दिया करती थीं । • रोगादि का निवारण औषधिसेवन के अतिरिक्त मन्त्र तन्त्रसे शक्तियों से भी किया जाता था। इलाज करनेवाले बहुत चिकित्सक होते थे और वे वमन आदि क्रिया के द्वारा रोग का इलाज किया करते थे । मन्त्र तन्त्र शक्ति में जनता का काफी विश्वास था । कुछ लोग तपस्या के प्रभाव से मन्त्रादि शक्ति प्राप्त करके जीविका भी चलाते थे । जनता में अन्धविश्वास भी अधिक था । शुभाशुभ शकुनों का विचार किया जाता था। जैनश्रमणों को इन सबसे दूर रहने का विधान था । I समाज में सुख-शान्ति बनाए रखने के लिए शासन-व्यवस्था थी। शासन का अधिकार क्षत्रियों के हाथ में था । शासन करनेवाला राजा कहलाता था । ये प्रायः एक-एक देश के स्वामी होते थे और देश की उन्नति आदि के लिए प्रयत्न किया करते थे । सभी देशों पर एकछत्र राज्य करनेवाला 'चक्रवर्ती' कहलाता था और उसे सभी राजागण नमस्कार करते थे । राजगद्दी प्राप्त करने का अधिकारी सामान्यरूप से राजा का पुत्र होता था । लावारिश सम्पत्ति का अधिकारी राजा होता था । इनका ऐश्वर्य देवों के तुल्य था । ये प्राय: अन्तःपुर की रानियों आदि के साथ भोग-विलास में लिप्त रहा करते थे । कभी-कभी ये श्रमण-दीक्षा भी ले लेते थे । जब कोई योग्य शासक दीक्षा लेता था तो उस समय का दृश्य बड़ा ही दर्शनीय और कारुणिक होता था । शत्रुओं के आक्रमण होते रहने से राजागण सदैव सैन्यदल बढ़ाने तथा कोषवृद्धि करने के प्रति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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