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________________ ४१८ ] उत्तराध्ययन सूत्र : एक परिशीलन है ।' एक जगह इन्हें 'चैत्य' शब्द से भी कहा गया है । कोईकोई उद्यान इतने बड़े होते थे कि वहाँ पर बहुत से लोग एकत्रित हो सकते थे । जैसे : श्रावस्ती नगरी के समीपवर्ती 'तिन्दुक' उद्यान में केशिकुमार तथा 'कोष्ठक' उद्यान में गौतम अपनी-अपनी शिष्यमंडली के साथ ठहरे हुए थे । इसी बीच गौतम जैनधर्म के विषय में उत्पन्न हुई शिष्यमंडली की शंका के निराकरणार्थ अपनी शिष्यमण्डली के साथ तिन्दुक उद्यान में जाते हैं । उस समय वहाँ पर दोनों की शिष्य मण्डली तथा अन्य अनेक देव-दानवों के अतिरिक्त हजारों की संख्या में बहुत से पाखण्डी, कौतुकी तथा गृहस्थ भी एकत्रित होते हैं । 3 व्यापार और समुद्रयात्रा : वैश्यों का मुख्य पेशा व्यापार था और वे व्यापार के लिए विदेश भी जाया करते थे । व्यापार करने के कारण ही उन्हें 'वणिक' कहा जाता था । " वणिक् का ही अपभ्रंश रूप 'बनिया' व्यापारियों के लिए आज भी प्रयुक्त होता है। प्रायः समुद्रपार वणिक् ही जाया करते थे । अतः समुद्र पार करने के विषय में वणिक् का दृष्टान्त दिया गया है । समुद्रपार जाते समय बड़ी १. जैसे : काम्पिल्य नगर का केशरी उद्यान (१८.३ - ४ ), श्रावस्ती कातिन्दुक व कोष्ठक ( २३.४, ८, १५), बनारस का मनोरम ( २५.३ ), मगध का मंडिकुक्षिक ( २००२ - ३ ), देवलोक का नन्दन ( २०.३, ३६ ) । २. देखिए - पृ० ४१७, पा० टि० ६-७० ३. समागया बहू तत्थ पासंडा को उगासिया । गिहत्थाणं अणेगाओ साहस्सीओ समागया || तथा देखिएए - उ० २३.४-१८,२०. ४. देखिए - पृ० ३६७, पा० टि० १; पृ० ४१६, पा० टि० २. ५. किणतो कइयो होइ विक्किणंतो य वाणिओ । - उ० ३५.१४. ६. जे तरंति अतरं वणिया व । - उ० २३.१६. - उ० ८.६. तथा देखिए - पृ० ४०२, पा० टि० १; पृ० ३६७, पा० टि० १. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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