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________________ प्रकरण ५ : विशेष साध्वाचार [ ३५३ को 'हज' कहते हैं और जो इन पर विजय प्राप्त कर लेता है वह संसार में भ्रमण नहीं करता है । " परीषहजय के भेद व स्वरूप : यद्यपि इन परीषहों की संख्या अनन्त हो सकती है परन्तु ग्रन्थ में इन्हें बाईस भागों में विभक्त किया गया है । इनसे पीड़ित होकर धर्मच्युत न होना परीषहजय है । वे बाईस परीषहजय इस प्रकार हैं : २ १. क्षुधा परीषहजय - भूख से व्याकुल होने पर तथा शरीर के अत्यन्त कृश हो जाने पर भी क्षुधा की शान्ति के लिए न तो फलादि को स्वयं तोड़ना, न दूसरे से तुड़वाना, न पकाना और न दूसरे से पकवाना अपितु क्षुधाजन्य कष्ट को सब प्रकार से सहन करना क्षुधा परीषहजय है । 3 २. तृषा परीषहजय - प्यास से मुख के सूख जाने पर तथा निर्जनस्थान के होने पर भी शीतल ( सचित्त ) जल का सेवन न करके अचित्त जल की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करना तृषा परीषहजय है।४ ३. शीत परीषहजय - ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यदि शीतजन्य कष्ट होने लगे तो शीतनिवारक स्थान एवं वस्त्रादि के १ दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छमाणुसे । जे भिक्खू सहइ निच्च से न अच्छइ मंडले || Paatar सबले बाबीसाए परीसहे । भिक्खू जयई निच्च से न अच्छइ मंडले || २. इमे खलु ते बावीसं परीसहा सापरीस हे " —उ० ३१.५. Jain Education International -उ० ३१.१५. "तं जहा - दिगिछापरीस हे पिवा - "अन्नाणपरीस हे दंसणपरीसहे । - उ० २.३-४ (गद्य). ३. देखिए - पृ० ३५२, पा० टि० ३; उ० २.२; १६.३२. ४. सीओदगं न सेवेज्जा वियडस्सेसणं चरे । - उ० २.४. तथा देखिए - उ० २.५. For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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