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________________ ३२० ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन । न होने पर हिंसादि दोष होते हैं । इसीलिए ग्रन्थ में कहा है कि जो अनेषणीय (सचित्त) आहार ग्रहण करता है वह अग्नि की तरह . सर्वभक्षी होने से साधु नहीं कहलाता है।' आहार के विषय में कुछ अन्य ज्ञातव्य बातें: साधु जब गहस्थ से भोजन ग्रहण करे तथा जब उसका उपभोग करे तो निम्नोक्त बातों को ध्यान में रखे : १. भोजन देते समय दाता गृहस्थ साधु से न तो उच्च स्थान पर हो, न निम्न स्थान पर हो, न अति समीप हो और न अत्यन्त दूर हो । २. यदि कोई दूसरा भिक्षु पहले से किसी गृहस्थ से आहार ले रहा हो तो न गृहस्य के एकदम आँखों के सामने और न अत्यन्त दूर खड़ा होवे । भिक्षु का उल्लङ्घन करके घर में भी प्रवेश न करे अपितु तब तक चुपचाप बाहर खड़ा रहे जब तक पहलेवाला भिक्षु आहार लेकर वापिस न आ जाए। ऐसा इसलिए करना आवश्यक है कि पहले आया हुआ भिक्षु अपनी पूरी भिक्षा प्राप्त कर ले, कहीं ऐसा न हो कि गृहस्थ दसरे भिक्षु को देखकर पहलेवाले भिक्षु को कम भिक्षा देवे या बिलकुल ही न देवे ।। ३. यदि साधु को भिक्षा प्राप्त न भी हो तो वह क्रोधादि न करे अपितु हरिके शिबल मुनि की तरह लाभालाभ में सन्तुष्ट रहे । ___४. आहार आदि की प्राप्ति एवं जीविका-निर्वाह के लिये किसी भी प्रकार की विद्या व मन्त्रादि शक्तियों का प्रयोग न करे। १. देखिए-पृ० ३१८, पा० टि० १. २. नाइ उच्चे व नीए वा नासन्ने नाइदूरओ। -उ० १.३४. ३. नाइदूरमणासन्ने नन्नेसि चक्खु फासओ। एगो चिट्ठज्ज भत्तट्ठा लंघित्ता तं नइक्कमे ।। -उ० १.३३. ४. देखिए-पृ० ३१६, पा० टि० १; पृ० ३१८, पा० टि० ३. ५. उ० ८.१३; १५.७. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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