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________________ प्रकरण ४ : सामान्य साध्वाचार [२५७ ने लोगों की बदलती हुई सामान्यप्रवृत्ति को ध्यान में रखकर किया है। लोगों की बदलती हुई प्रवृत्ति को बतलाते हुए लिखा है कि प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् आदिनाथ के समय में मनुष्य सरलप्रकृति के साथ मूर्ख थे (ऋजुजड़ ), चौबीसवें ( अन्तिम ) तीर्थङ्कर भगवान् महावीर के समय में मनुष्य कुटिलप्रकृति के साथ मूर्ख थे (वक्रजड़ ) तथा दोनों तीर्थङ्करों के मध्यकाल ( दूसरे से लेकर तेईसवें तीर्थङ्कर के काल ) में मनुष्य सरलप्रकृति के साथ व्युत्पन्न ( ऋजुप्राज्ञ ) थे।' इसका यह तात्पर्य है कि मध्यकाल के व्यक्ति सरल व व्युत्पन्न होने के कारण धर्म को आसानी से ठीक-ठीक समझ लेते थे तथा उसमें कुतर्क आदि न करके यथावत उसका पालन करते थे। अतः मध्यकाल में वस्त्रादि के नियमों में शिथिलता दे दी गई थी परन्तु आदिनाथ तथा महावीर के काल में व्यक्तियों के मूर्ख ( अल्पज्ञ ) होने के कारण यह सोचकर कि कहीं वस्त्रादिक में रागबुद्धि न करने लगें वस्त्रादि के विषय में प्रतिबन्ध लगा दिए गए। महावीर के काल में ऐसा करना और भी अधिक आवश्यक हो गया क्योंकि इस काल के व्यक्ति वक्र होने के कारण कुतर्क द्वारा धर्म में भेद करने लगे थे। अतः महावीर के काल में स्थविरकल्प (अपवादमार्ग) की अपेक्षा से साधारणकोटि के वस्त्र धारण करने की तथा जिनकल्प (उत्सर्गमार्ग) की अपेक्षा से नग्न रहने की अनुमति दी गई। इससे प्रतीत होता है कि साध या तो साधारणकोटि के वस्त्रधारी होते थे या नग्न। साधु के लिए सहनीय प्रमुख २२ कष्टों ( परीषहों) में अचेल होना भी एक कष्ट है जिसका वर्णन करते हुए लिखा है कि साधु वस्त्र फट जाने पर या नग्न हो जाने पर भी नूतन वस्त्र की अभिलाषा न करे। . १. पुरिमा उज्जुजड्डा वक्कजडा य पच्छिमा। ' मज्झिमा उज्जुपन्ना उ तेण धम्मे दुहा कए। पुरिमाणं दुन्विसोझो उ चरिमाणं दुरणपालओ। कप्पो मज्झिमगाणं तु सुविसोज्झो सुपालओ ॥ -उ० २३. २६-२७. २. देखिए-पृ० २५५, पा० टि० १. ३. देखिए-पृ० ३२, पा० टि० २. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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