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________________ प्रकरण ३: रत्नत्रय [ २४५ गुणों से युक्त होना चाहिए उनमें कुछ इस प्रकार हैं : विनय, सदाचार, कर्त्तव्यपरायणता, जितेन्द्रियता आदि । रत्नत्रय में तृतीय स्थान सम्यक्चारित्र का है जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और धनादि-संग्रहत्याग (अपरिग्रह) रूप पाँच नियमों के पालन करने में पूर्ण होता है। इन सभी नियमों के मूल में अहिंसा की भावना है और अहिंसा की पूर्णता पूर्ण वीतरागता (अपरिग्रहता) की अवस्था में होती है। अतः वीतरागतारूप चारित्र के उत्तरोत्तर विकास की दृष्टि से साधु के सम्यक्चारित्र को पाँच भागों में विभक्त किया गया है जिन्हें साधक क्रमशः प्राप्त करता है। सदाचार का पालन करने वाले गृहस्थ या साधु स्त्री-पुरुष होते हैं। अतः इस सदाचार को दो भागों में भी विभक्त किया गया है : १. गृहस्थाचार और २. साध्वाचार । __ गहस्थाचार साध्वाचार की प्रारम्भिक अभ्यासावस्था है क्योंकि गहस्थ धीरे-धीरे अपने चारित्र का विकास करता हुआ साधु के आचार की ओर अग्रसर होता है। गृहस्थाचार पालन करने का उपदेश उन्हें ही दिया गया है जो साध्वाचार का पालन नहीं कर सकते हैं । अतः चारित्र के सामायिक आदि जो पाँच भेद किए गये हैं वे साधु के आचार की ही विभिन्न अवस्थाएँ हैं। सामायिकचारित्र के अन्तर्गत जिन अहिंसादि व्रतों का साधु सूक्ष्मरूप से पालन करता है गृहस्थ उन्हीं व्रतों को अपने कुटुम्ब का पालन-पोषण करता हुआ स्थूलरूप से पालन करता है। अतः गृहस्थ के अहिंसादि व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं और साधु के 'महाव्रत' । यहाँ एक बात और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि ग्रन्थ में गृहस्थ को जो मुक्ति का अधिकारी बतलाया गया है उसका कारण है बाह्य लिङ्ग की अपेक्षा आभ्यन्तर-शुद्धि का महत्त्व । अन्यथा ग हस्थ ग हस्थावस्था से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता है क्योंकि वह पूर्ण वीतरागी नहीं होता है। जबतक कोई गहस्थ या साधु पूर्ण वीतरागी नहीं होगा तबतक वह मुक्ति का भी अधिकारी नहीं हो सकता है। यह सत्य है कि वीतरागता व सदाचार की पूर्णता बाह्यलिङ्ग से नहीं होती है अपितु वह आत्मा की शुद्धि पर निर्भर है। चूंकि गृहस्थ कौटुम्बिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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