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________________ प्रकरण ३ : रत्नत्रय [ २०७ के साथ ज्ञान और चारित्र का भी वर्णन किया गया है। परवर्ती जैन-साहित्य में इसके महत्त्व की काफी चर्चा मिलती है।' सम्मज्ञान (सन्मज्ञान) सम्यग्ज्ञान का अर्थ है-सत्यज्ञान । यहाँ सत्यज्ञान से तात्पर्य घट-पटादि सांसारिक वस्तुओं को जानना मात्र नहीं है अपितु मोक्षप्राप्ति में सहायक है तथ्यों का ज्ञान अभिप्रेत है अर्थात् सम्यग्दर्शन से जिन ह तथ्यों पर विश्वास किया गया था उनको विधिवत जानना। इसके अतिरिक्त जितना भी सांसारिक फलाभिलाषा वाला ज्ञान है वह सब मिथ्या है क्योंकि वह दुःख-निवृत्तिरूप मुक्ति के प्रति अनुपयोगी है। अतः 'स्त्री, पुत्र, धन आदि सुख के साधन हैं' ऐसा ज्ञान भी मिथ्या है। सत्यज्ञान वही है जो हमेशा रहे। ग्रन्थ में उल्लिखित सांसारिक विषयभोगों से सम्बन्धित २६ प्रकार के मिथ्याशास्त्रों (पापश्रुत-मिथ्याज्ञान को उत्पन्न करने १. देखिए- समीचीन धर्मशास्त्र, पृ० ३१-४१. २. देखिए-पृ० १८८, पा० टि० ४; उ० २८.५. ३. उनतीस प्रकार के मिथ्याशास्त्र (पापश्रुत) ये हैं : १. दिव्य-अट्टहासादि को बतलाने वाले, २. उल्कापात आदि का इष्टानिष्ट फल बतलाने वाले, ३. अन्तरिक्ष में होने वाले चन्द्रग्रहण आदि का फल बतलाने वाले, ४. अङ्गस्फुरण का शुभाशुभ फल बतलाने वाले, ५. स्वरों का फल बतलाने वाले, ६. स्त्री-पुरुषों के लक्षणों का शुभाशुभ फल बतलाने वाले, ७. तिल, माषा आदि का फल बतलाने वाले, ८. भूकम्प-विषयक शुभाशुभ फल बतलाने वाले । ये ८ प्रकार के शास्त्र ही मूल, टीका और भाष्य (सूत्र-वृत्ति-वार्तिक) के भेद से २४ प्रकार के हैं। २५. अर्थ और काम-भोग के उपायों को बतलाने वाले अर्थशास्त्र, कामसूत्र आदि, २६. रोहिणी आदि विद्याओं की सिद्धि बतलाने वाले, २७. मन्त्रादि से कार्यसिद्धि बतलाने वाले, २८. वशीकरण आदि योगविद्या को बतलाने वाले और २६. जैनेतर उपदेशकों द्वारा उपदिष्ट हिंसादिप्रधान शास्त्र । -उ० ने० वृ०, पृ० ३४६; आ० टी०, पृ० १४०२; श्रमणसूत्र, पृ० १९२; समवायाङ्ग, समवाय २६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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