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________________ २००] उतराव्ययन-सूत्र : एक परिशीलन १. निःशंकित (तत्त्वों में किसी प्रकार की शङ्का न होना), २. निःकांक्षित (सांसारिक विषय-भोगों की इच्छा न करना), ३. निविचिकित्सा (धर्म के फल में सन्देह न करना), ४. अमूढ़दृष्टि (नाना प्रकार के मत-मतान्तरों को देखकर भी तथ्यों में अविश्वास न करना अर्थात मूढता को प्राप्त न होकर धर्म में श्रद्धा को दृढ़ बनाए रखना), ५. उपवहा' (गुणी पुरुषों की प्रशंसा करना), ६. स्थिरीकरण २ (धर्म से पतित होने वाले को सन्मार्ग में दढ़ करना), ७. वात्सल्य (सहधर्मियों से प्रेमभाव रखना) और ८. प्रभावना (धर्म के प्रचार एवं उन्नति के लिए प्रयत्न करना)। इस तरह इन आठ अङ्गों में प्रथम चार निषेधात्मक हैं और अन्य चार विधानात्मक हैं। सम्यक्त्व की दृढ़ता के लिए ग्रन्थ में इनके अतिरिक्त तीन अन्य गुण भी आवश्यक बतलाए हैं. : १. जीवादि तथ्यों का पुन. पुनः अनुचिन्तन करना, २. परमार्थदर्शी महापुरुषों की सेवा करना और ३. सन्मार्ग से पतित एवं मिथ्या उपदेश देने वाले मिथ्यादृष्टियों के संपर्क का त्याग करना। - इन गुणों के अतिरिक्त सम्यक्त्व के विघातक जितने भी दोष संभव हो सकते हैं उन सबका त्याग भी जरूरी है। ग्रन्थ में सम्यक्त्व के विघातक ऐसे कुछ दोषों का कथन भी किया गया है जिनका त्याग करना आवश्यक है। जैसे-मन से, वचन से एवं १. 'उपवृहा' को 'उपगूहन' भी कहा जाता है। इसका अर्थ है-अपने गुणों और गुरु आदि के दुर्गुणों को प्रकट न करना । -समीचीन धर्मशास्त्र, श्लोक १५. २. जैसे राजीमती ने रथनेमी को धर्म में स्थिर किया था। देखिए-परिशिष्ट २. ३. परमत्थसंथवो वा सुदिठ्ठपरमत्थसेवणं वावि । बावन्नकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥ --उ० २८.२८. ४. दंडाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियः ।। जे मिक्खू चयई निच्चं से न अच्छइ मंडले ।। -उ० ३१.४. तथा देखिए-उ० १६.६०,६२; २७.६ ; ३०.३,३१.१०, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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