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________________ ११६ ] उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन वह सामान्य कथन की अपेक्षा से है । सौधर्म देव से लेकर सहस्रार देव पर्यन्त अधिकतम अन्तर्मान अनन्तकाल है तथा जघन्य अन्तर्मान अन्तर्महूर्त है। आनत से लेकर नवग्रैवेयक पर्यन्त जघन्य अन्तर्मान पृथकवर्ष है क्योंकि ये देव मरकर ऐश्वर्यसम्पन्न मनुष्य ही होते हैं। इनका उत्कृष्ट अन्तर्मान अनन्तकाल है।' प्रथम चार अनुत्तर देवों का जघन्य अन्तर्मान पृथककाल है तथा अधिकतम अन्तर्मान संख्येय सागर है । २ सर्वार्थसिद्धि के देव एकभवावतारी होते हैं। ये अपनी आयु पूर्ण करने के बाद मरकर मनुष्य गति में पैदा होते हैं और मनुष्य जन्म के बाद ये नियम से मुक्त हो जाते हैं। अतः इनके अन्तर्मान का प्रश्न ही नहीं उठता है। शेष क्षेत्रादि-सम्बन्धी सभी बातें भवनवासी आदि देवों की तरह हैं। 3 देवों के विषय में कुछ अन्य ज्ञातव्य बातें-ये देव अजर होकर भी अमर नहीं होते हैं क्योंकि एक निश्चित आयु के बाद मनुष्य या तिर्यञ्चगति में जन्म लेकर अपने शेष कर्मों का फल अवश्य भोगते हैं। देवों की बहुत अधिक लम्बी आयु होने के कारण उन्हें अमर कहा जाता है। सर्वार्थसिद्धि के देव भी, जो देवों में सर्वोत्तम हैं, अपनी आयु के पूर्ण होने पर मनुष्य-लोक में जन्म लेते हैं। गीता में भी कहा है : 'पूण्य कर्म के क्षीण हो जाने पर देव विशाल स्वर्गलोक से मनुष्यलोक में प्रवेश करते हैं। ये देव अपने-अपने १. अणंतकालमुक्कोसं अंतोमुहत्तं जहन्नयं । विजढम्मि सए काए देवाणं हुज्ज अंतरं । अणंतकालमुक्कोसं वासपुहुत्तं जहन्नयं । आणयाईण देवाणं गेविज्जाणं तु अंतरं ॥ -उ०३६.२४५-२४६. २. संखेज्जसागरुक्कोस वासपुहत्तं जहन्नयं । अणुत्तराणं देवाणं अंतरेयं वियाहियं ॥ -उ० ३६.२४७. ३. उ० ३६.२१६-२१७, २४८. ४. उ० १४.१-२; ३.१४,१६; ६.१; १३.१; १६.८, ५. ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोक विशालम् । क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ॥ -गीता ६.२१... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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