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________________ प्रकरण १ : द्रव्य-विचार [८६ सकल बन्धनों से रहित हैं परन्तु पूर्वजन्म की उपाधि की अपेक्षा से उनके भी कई भेद हो सकते हैं । २. संसारी-जीव-जो किए हुए कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र हैं, तथा शरीर से युक्त हैं वे सब संसारी-जीव हैं। इन्हें 'बद्ध' या 'सशरीरी' जीव भी कह सकते हैं। ये यद्यपि कर्म करने में स्वतन्त्र हैं परन्तु उसका फल भोगने में परतन्त्र हैं। इन्हें कर्म-फल भोगने के लिए शरीर का आश्रय लेना पड़ता है । संसार का अर्थ है - आवागमन । अर्थात् जहाँ पर कर्म-फल भोगने के लिए एक शरीर से दूसरे शरीर को ग्रहण करना पड़े या जन्म-मरण के चक्र में चलना पड़े उसे संसार कहते हैं। अतः संसारी से तात्पर्य लोक में निवास करना नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सिद्ध जीव भी लोक के भीतर ही रहने के कारण संसारी कहलाएँगे। इस तरह संसारी से तात्पर्य है जो अपने शुद्ध-स्वरूप को प्राप्त न करके कर्म-फल भोगने के लिए परतन्त्र हैं तथा शरीर से युक्त हैं। संसारी-जीवों के मुख्यरूप से पाँच प्रकार के शरीर माने गए हैं : १. औदारिक-वह स्थूल-शरीर जिसका छेदन-भेदन किया जा सके, २. वैक्रियक-जिसका छेदन-भेदन न हो सके परन्तु स्वेच्छा से छोटा-बड़ा, पतला-मोटा आदि अनेकरूप किया जा सके, ३ आहारक-किसी विशेष अवसर पर मुनि के द्वारा बनाया गया शरीर, ४ तैजस-अन्नादि पाचन क्रिया में तेज उत्पन्न करनेवाला और ५. कार्मण-पुण्यपापरूप कर्मों का पिण्ड । इन पाँच प्रकार के शरीरों में से तैजस और कार्मण शरीर प्रत्येक संसारी जीव के साथ हमेशा रहते हैं। अतः इनका जीव के साथ अनादि सम्बन्ध है। इन दो शरीरों के अतिरिक्त जीवित अवस्था में जीव के साथ औदारिक और वैक्रियक में से कोई एक शरीर और रहता है। इस तरह सामान्यतः जीवित अवस्था १. तो ओरालियतेयकम्माई सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता"। -उ० २६.७३. औदारिकवैक्रियकाहारकत जसकार्मणानि शरीराणि।। -त० सू० २.३६. तथा देखिए-२.३७-४६. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004252
Book TitleUttaradhyayan Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherSohanlal Jaindharm Pracharak Samiti
Publication Year1970
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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