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________________ * १३८ * कर्मविज्ञान : भाग ९ * यदि (विदेहमुक्त सिद्ध) ईश्वर जगत् का कर्ता-हर्ता है और उसी के हाथ में जगत् के जीवों का जन्म-भरण है, तब वह क्यों किसी जीव को मरने देता है? क्यों किसी को पापी, निर्दयी, चोर, हत्यारा, व्यभिचारी, डकैत, आतंकवादी, विद्रोही या नास्तिक बनाता है ? सभी प्राणियों को एक सरीखा आस्तिक, दयालु, सदाचारी, अहिंसक, आत्मार्थी, परमार्थी या धर्मात्मा क्यों नहीं बना देता? यदि तथाकथित ईश्वर के हाथ में सीधी तौर से किसी को ज्ञानादि का प्रकाश देने का सामर्थ्य होता तो वह किसी के भी अन्तःकरण में अज्ञानादि अन्धकार न रहने देता। विश्व के समस्त जीवों को प्रकाशमय और आनन्दमय बना देता। अधम और दुराचारी व्यक्तियों को भी सबुद्धि-सम्पन्न और सदाचारी बना देता। प्रत्येक प्राणी नीची भूमिका से उठाकर ऊपर की भूमिका पर चढ़ा देता। किन्तु ऐसा दिखाई नहीं देता, प्रत्युत इसके विपरीत आचरण और विचार जगत् में देखा जाता है। अतः जैन कर्मविज्ञान का यह युक्तिसंगत तर्क है कि पूर्ण शुद्ध, निरंजन, निराकार, सर्वकर्ममुक्त ईश्वर भला जगत् का कर्ता-हर्ता बनने के लिए पुनः कर्ममल से लिपटकर संसार के जन्म-मरणादि चक्र में क्यों लौटकर आयेंगे? जिस संसार-चक्र को वे तोड़ चुके हैं। जन्म-मरण से, कर्मों से, शरीरादि से जो रहित हो चुके हैं, ऐसे कृतकृत्य सिद्ध-परमात्मा (ईश्वर) में राग-द्वेषयुक्त जगत्-कर्तृत्व कैसे सम्भव हो सकता है? फिर भी अगर अन्ध-विश्वास, हठाग्रह या मन्दबुद्धिवश ईश्वर को जगत्कर्ता माना जायेगा तो उस पर पक्षपात, असामर्थ्य, राग-द्वेष, अन्याय आदि कई दोषरूप आक्षेप आयेंगे। यही कारण है कि जैनदृष्टि के अनुसार पूर्ण शुद्ध निरंजन निराकार सिद्धबुद्ध-मुक्त परमात्मा (ईश्वर) न तो किसी पर प्रसन्न होते हैं और न अप्रसन्न। वे अपने आत्म-स्वरूप में रत रहते हैं। प्रत्येक प्राणी के सुख-दुःख अपने कर्म संस्कार पर अवलम्बित हैं। यह चेतन-अचेतनरूप सारा जगत् प्रकृति के नियम से संचालित है। यह जगत् प्रवाहरूप अनादि-अनन्त है। उसके कर्तत्व का भार वहन करने के लिए किसी परमात्म सत्ता (ईश्वर) को मानने और उसे जन्म देने वाले की आवश्यकता नहीं। इस प्रकार जैनदर्शन में ईश्वर का अस्वीकार नहीं है, वह अनीश्वरवादी नहीं है, किन्तु ईश्वर की जगत्-सृजनसत्ता का वह अस्वीकार करता है।' संसार की समस्त आत्माएँ ईश्वर हैं; वे अपनी शुभाशुभ कर्मसृष्टि का स्वयं सृजन करती हैं ___ पहले हम कह आए हैं कि जैनदर्शन केवल एक ही सृष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं माता, अपितु पूर्वोक्त कथन के अनुसार संसार की सभी आत्माओं में (त्रिविधरूप नईश्वरत्व मानता है। उक्त दृष्टि से वह प्रत्येकबद्ध ईश्वर (कर्मबद्ध आत्मा) में ५. जनतत्वकलिका' से भाव ग्रहण, पृ. १०७-१०८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004250
Book TitleKarm Vignan Part 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1997
Total Pages704
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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