SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ७८ कर्मविज्ञान : भाग ८ * प्रादुर्भाव न होने पाए, इस अपेक्षा से उसका दीर्घकाल तक निरन्तर और सत्कार के साथ बार-बार चिन्तन करना परम आवश्यक है और यह भी निःसन्देह कहा जा सकता है कि श्रद्धापूर्वक लगन से उत्साहपूर्वक आदर-सत्कार और विनय बहुमान के साथ किया जाने वाला कार्य अवश्य ही सफल होता है। यही कारण है कि यही बात महर्षि पतंजलि ने समाधि-प्राप्ति हेतु साधनरूप अभ्यास के सन्दर्भ में कही है। भावनायोग के दो छोर : अध्यात्मयोग और ध्यानयोग ___ यह सत्य है कि जिस विषय का बार-बार अनुचिन्तन, अनुप्रेक्षण, अनुशीलन . . किया जाता है, जिस प्रवृत्ति का बार-बार अभ्यास किया जाता है, मन में उसके दृढ़ संस्कार जम जाते हैं। अतएव उस दृढ़ संस्कार को अथवा चिन्तन की दृढ़ मनोभूमि को भावनायोग कहा जाता है। __ इस दृष्टि से यह कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी कि भावनायोग अध्यात्मयोग से प्राप्त अध्यात्म-संस्कारों को उत्तरोत्तर परिपक्व और सुदृढ़ करने वाला है और दूसरी ओर ध्यानयोग की पूर्व भूमिका तैयार करता है। आचार्य हेमचन्द्र ने मैत्री आदि चार भावनाओं का वर्णन ध्यान के स्वरूप के दौरान करते हुए “भावनाओं (भावनायोग) को टूटे हुए ध्यान को पुनः ध्यानान्तर के साथ जोड़ने वाली अथवा ध्यान को पुष्ट करने वाली रसायन कहा है। अतः भावनायोग का एक छोर हैअध्यात्मयोग और दूसरा छोर है-ध्यानयोग। अध्यात्मयोग के द्वारा अध्यात्म-तत्त्व की साधना के साथ जब भावनायोग जुड़ जाता है तो :अध्यात्मयोगी निरन्तर विकास करता हुआ अध्यात्मभूमि को परिपक्व एवं सुदृढ़ कर लेता है, वह भेदविज्ञान को शीघ्र ही हृदयंगम कर पाता है, विवेकचेतना को सतत जाग्रत रखने में समर्थ हो जाता है और अप्रमत्तयोगी बन सकता है। यह तो भावनायोग के विकास की प्राथमिक भूमिका है। भावनायोग का दूसरा छोर है-ध्यानयोग। जैसा कि भावना का लक्षण आचार्य हेमचन्द्र ने किया है-ध्यान की समाप्ति होने के पश्चात् मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिन्तन बार-बार करना भावना है। अतः भावनायोग को ध्यानयोग का सहायक या पूरक कहा जा सकता है। भावनायोग का मुमुक्षुजीवन में सर्वाधिक महत्त्व योग का अर्थ होता है-जोड़ना। अतः भावनायोग का अर्थ हुआ आत्म-विकासलक्षी भावनाओं द्वारा आत्मा को आत्मा से जोड़ना, आत्मा के द्वारा १. (क) पातंजल योगदर्शन, भोजवृत्ति, १/१४ सू. - (ख) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' से भाव ग्रहण, पृ. १७ २. योगशास्त्र' (आचार्य हेमचन्द्र) से भाव ग्रहण, प्र. ४, श्लो. ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy