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________________ ७६ कर्मविज्ञान : भाग ८ वह भ्रम मिट गया, वह ज्ञान प्रगट हो गया तथा स्पष्ट प्रतीत हो गया कि “शरीर अन्य है, मैं अन्य हूँ।” मनुष्य का सर्वाधिक मोह शरीर पर होता है । शरीर साधन है, पर इसे ही साध्य या सब कुछ मानकर कार्य किया जाता है। जब तक यह ममत्व बुद्धि छाई रहती है, अहंकार-ममकार समाप्त नहीं होता, वासना का तूफान शान्त नहीं होता, भोगलालसाएँ भभकती रहती हैं, कामनाएँ नानारूप धारण करके चित्त में उमड़-घुमड़कर आती हैं, इन पर इतना तीव्र प्रहार होना चाहिए कि मोह शान्त या छिन्न-भिन्न हो जाए। ऐसी स्थिति में अध्यात्मयोग की तत्त्वज्ञानपूर्वक साधना से यह सारी मूर्च्छा जब विलीन हो जाती है, शरीर और आत्मा के भेद की सारी दीवारें ढह जाती हैं, तब यह स्पष्ट बोध हो जाता है कि 'मैं शरीर नहीं हूँ।' इस बोध के साथ-साथ सारी परिस्थितियाँ भी बदल जाती हैं। मूर्च्छा का घना कोहरा छँट जाता है, अन्धकार के बादल बिखर जाते हैं। वह अनासक्त बनकर समत्व में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसका मार्ग प्रशस्त हो जाता है। मोह की गाँठ छिन्न-भिन्न होते ही शरीर और आत्मा की भिन्नता स्पष्ट प्रतीत हो जाती है। चैतन्य के शुद्ध स्वरूप का बोध हो जाता है, तब वह यह स्पष्ट जान लेता है कि मैं कौन हूँ? मेरी ऐसी स्थिति क्यों और कैसे हुई ? मुझे अब कहाँ जाना है ? क्या करना है ? इत्यादि । जब शरीर के प्रति ममत्व नहीं रहेगा, तब उसे पदार्थों के प्रति भी उसका राग-द्वेष उपशान्त या क्षीण होने लगेगा। ऐसे साधक ही अध्यात्मयोग की साधना में स्थिर होकर मोक्ष के निकट पहुँच जाते हैं। स्व. आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज के अनुसार - अध्यात्मयोग के स्वरूप को समझकर उसे आत्मसात् करने पर व्यक्ति जो भी प्रवृत्ति, चर्या या साधना करता है, तब उसके पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय शीघ्रता से होने लगता है, नये कर्म बँधने से रुक जाते हैं, पापकर्मों का नाश भी सम्यग्दर्शनादि चारों मोक्षोपायों की साधना करने से हो जाता है। उसकी आत्म-शक्तियाँ प्रगट होने लगती हैं। 'योगभेद द्वात्रिंशिका में कहा गया है कि " अध्यात्मयोग के स्वरूप को समझकर उसे हृदयंगम कर लेने पर साधक के पापों का क्षय, वीर्य (शक्ति) का उल्लास, चित्त में प्रसन्नता, वस्तुतत्त्व का सम्यक् बोध और अनुभवों में वृद्धि होने लगती है।” यही मोक्ष से जोड़ने की अध्यात्मयोग की फलश्रुति है । ' १. (क) 'योग-प्रयोग- अयोग' से साभार भाव ग्रहण, पृ. १९० (ख) 'जैनागमों में अष्टांगयोग' (स्व. आचार्य श्री आत्माराम जी) से भाव ग्रहण, पृ. १५ (ग) अतः पापक्षयः सत्त्वं शीलं ज्ञानं च शाश्वतम् । Jain Education International तथानुभव-संसिद्धममृतं ह्यद एव नु ॥ - योगभेद द्वात्रिंशिका (उपाध्याय यशोविजय जी) ३०/८ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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