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________________ * मोक्ष से जोड़ने वाले : पंचविध योग ॐ ७१ 8 अध्यात्मयोग की क्रियान्विति कैसे हो ? अध्यात्म की कोरी बातों से जीवन में अध्यात्म नहीं आ जाता, इसके लिए जीवन में पद-पद पर प्रत्येक क्रिया, प्रवृत्ति या चर्या में अध्यात्म की अनुभूति होनी चाहिए। अध्यात्म की अनुभूति आध्यात्मिक जीवन जीने से ही हो सकती है, उसके अभ्यास के लिए सम्यग्दृष्टि शम या सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्था, इन पाँच तत्त्वों को जीवन में ताने-बाने की तरह बुनना आवश्यक है। अध्यात्म की वास्तविक अनुभूति के लिए तात्त्विक चिन्तन आवश्यक है। जैनदर्शन ने जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आम्रव, संवर, बंध, निर्जरा और मोक्ष, ये नौ तत्त्व बताये हैं। इनमें जीव (आत्मा) तत्त्व मुख्य है, संवरतत्त्व द्वारा जीव कर्मों को आने से रोकता है, निर्जरा तत्त्व से पूर्वबद्ध या पूर्वसंचित कर्मों का क्षय, क्षयोपशम या उपशम अंशतः करता है और मोक्षतत्त्व से आत्मा कर्मों का सर्वथा क्षय करता है। ___ इसीलिए आचार्य हरिभद्र ने अध्यात्मयोग (अध्यात्म) का परिष्कृत लक्षण बताते हुए कहा है-“औचित्यपूर्वक = सम्यक्बोधिपूर्वक, व्रत-नियम-त्यागप्रत्याख्यानादि से युक्त साधक के द्वारा आगमवचनों (या भगवद्वचनों) के अनुसार तत्त्वचिन्तन करने तथा मैत्री आदि भावनाओं से युक्त होने को अध्यात्मविदों ने अध्यात्म (अध्यात्मयोग) कहा है।" अध्यात्मयोग की इस परिभाषा के अनुसार यह स्पष्ट है कि औचित्य क्या है? अनौचित्य क्या है ? इसका निर्णय तत्त्वों के चिन्तन से होता है। 'योगबिन्दु' में स्पष्ट कहा है-“औचित्यादि से युक्त तत्त्वचिन्तन अध्यात्म है।"२ जिस साधक में अध्यात्मयोग का अभ्यास परिपुष्ट हो जाता है, वह जीव और अजीव, चेतन और अचेतन (जड़), अपौद्गलिक और पौद्गलिक तथा शरीर और आत्मा नामक दो-दो तत्त्वों के चिन्तन पर से, तार्किक बुद्धि से, सम्यक् युक्ति, आगमिक सूक्ति और निजानुभूति से, सैद्धान्तिक चर्चाओं, समीक्षाओं, दर्शनशास्त्र के मार्मिक निर्णयों के आधार पर स्वयमेव औचित्य-अनौचित्य का ज्ञान, भान कर लेता है। इस अध्यात्मयोग के बल से इस प्रकार के तत्त्वचिन्तन के फलस्वरूप साधक को आत्मा और शरीर का अथवा चेतन और अचेतन (जड़) का गहन भेदज्ञान प्राप्त हो जाता है। अध्यात्मयोग का संक्षिप्त परिष्कृत अर्थ है-शुद्ध आत्मा के साथ सब ओर से सर्वतोमुखी संयोग। इसे ही अन्य दार्शनिक आत्म-साक्षात्कार -उत्तरा.२८/१४ १. (क) जीवऽजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा। . संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव॥ (ख) औचित्याद् व्रतयुक्तस्य वचनात्तत्त्वचिन्तनम्। मैत्र्यादिभाव-संयुक्तमध्यात्मं तद्विदो विदुः॥ २. तत्त्वचिन्तनमध्यात्ममौचित्यादियुतस्य च। -योगबिन्दु ३५७ -वही, गा. ३८० पूर्वार्स Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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