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________________ ॐ समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल 8 ५७ 8 . महल में रहने और जंगल में रहने में मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता था, किन्तु तुम्हारे लिए जंगल-जंगल है, असुविधाजनक; और महल-महल है-सुविधाजनक; यही तुम्हारी और मेरी दृष्टि में अन्तर है।" यही क्षेत्र सामायिक का रहस्य है। भेदविज्ञान होने पर ही समत्व में ऊर्ध्वारोहण सम्भव (४) भावनात्मक समभाव का चौथा अंग है-भेदविज्ञानरूप समभाव-शरीर और आत्मा का स्व और पर का भेदविज्ञान करना, स्वभाव में रमण करना, पर-भावों के प्रति अहंत्व-ममत्व न करना भी भेदविज्ञानमूलक समभाव है। मुख्यतया आत्मा को विषमभावों-पर-भावों से हटाकर स्वभाव-समभाव में स्थिर करने से यह भेदविज्ञान की भावना सुदृढ़ होती है। 'सामायिक पाठ' में कहा गया है-हे वीतराग प्रभो ! आपकी स्वभाव-सिद्ध कृपा से मेरी आत्मा में ऐसी शक्ति प्रकट हो कि मैं शरीरादि समस्त पर-भावों से अपनी आत्मा को उसी प्रकार पृथक् कर सकूँ, जिस प्रकार म्यान से तलवार अलग की जाती है, क्योंकि मेरी आत्मा अन्तर शक्ति-सम्पन्न है और समस्त दोषों से रहित होने के कारण (निश्चयदृष्टि से) वीतरागस्वरूप है। समतायोग (सामायिक) का मूल उद्देश्य शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव व्यक्तियों या वस्तुओं से आत्मा को पृथक् जानना, मानना और मन-वचन-काया से भेदविज्ञान करना। आशय यह है कि शरीर और शरीर से सम्बद्ध वस्तुओं को लेकर जो मोह, ममता, आसक्ति और मूर्छा उत्पन्न होती है, उन्हीं के कारण हिंसादि पाप-दोषों की वृद्धि होती है तथा परिवार, सम्प्रदाय, जाति, राष्ट्र, धन-सम्पत्ति, राजसत्ता और जमीन-जायदाद आदि भौतिक वस्तुओं को लेकर जो क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या, राग, द्वेष, मोह, लोभ, माया, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर-परिवाद आदि विकार बढ़ते रहते हैं, जिनके कारण कर्मबन्ध होता है। उससे फिर जन्म-मरण का चक्र बढ़ता है, नाना कष्ट, दुःख, यातनाएँ आदि सहने पड़ते हैं, इन सबको शुद्ध आत्मा से पृथक् करना ही समतायोग का मुख्य प्रयोजन है। इस दृष्टि से विषमतावृद्धि करने और विविध दुःखों-कष्टों में डालने वाला शरीर है। पूर्वोक्त प्रकार से शरीर और शरीर से सम्बद्ध वस्तुओं के प्रति आसक्ति और मोह के कारण जो विषमताएँ पैदा होती हैं, वे आत्मा को समतायोग की साधना में आगे नहीं बढ़ने देतीं। शरीरदृष्टि बहिरात्मा समतायोग की साधना नहीं कर पाता इस प्रकार के भेदविज्ञान कर लेने से कर्मबन्ध रुक जाएगा तथा पूर्वकृत कर्मों का तीव्र गति से क्षय, क्षयोपशम एवं उपशम करने में समतायोग में जीव शीघ्र ही अभ्यस्त हो जाता है। भेदविज्ञान न करने पर शरीर की ही प्रधानता रहेगी, ऐसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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