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________________ समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल ५५ द्वन्द्वों तथा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव कैसे रखे ? समतायोगी निन्दा-प्रशंसा, वन्दना - निन्दना, हानि-लाभ, शीत-उष्ण तथा अनुकूलप्रतिकूल संयोगों में राग-द्वेषादि विषमभावों को स्थान नहीं देता, न ही लाभादि प्रसंगों पर अहंकार या गर्व करता है। इसी प्रकार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ मिलने पर भी समतायोगी न तो गर्व करता है, न ही खेद । दोनों ही परिस्थितियों को पूर्वकृत पुण्य-पाप का खेल समझता है। वह प्रत्येक परिस्थिति में सन्तुलन रखकर अपने को एडजस्ट कर लेता है। परिस्थितियों के हाथ की कठपुतली नहीं बनता । अच्छे-बुरे साधनों के रूप में संयोग या वियोग होने पर भी वह समत्व - साधना में तत्पर रहता है। बुरे साधन या पर्याप्त साधन मिलने, न मिलने पर भी वह किसी प्रकार की गर्वोक्ति या शोकोक्ति नहीं करता । इसी प्रकार अच्छे-बुरे या प्रिय-अप्रिय व्यक्तियों या जीवों के मिलने या उनसे वास्ता पड़ने पर वह आसक्त या भयभीत व चिन्तित नहीं होता। इसी प्रकार अजीव, पुण्य, पाप, आनव, संवर, निर्जरा, बन्ध आदि कारण कर्मोदय होने पर अनभिज्ञतावश समभाव न रखकर नाना दुःखों व यातनाओं को भोगता रहता है। अपनी आत्म-शक्ति को भूलकर शुभाशुभ कर्मों के चक्कर में पड़कर अशान्त और दुःखी होता है। ' परिस्थिति के अनुकूल मनःस्थिति बना लेना ही समतायोग है समतायोगी के लिए बुरी परिस्थितियों के संयोग और अच्छी परिस्थितियों के वियोग में समताभाव रखना बहुत ही आवश्यक है। पाश्चात्य विद्वान् ह्यूम · (Hume) परिस्थिति-समभाव के विषय में कहते हैं "He is happy whose circumstances suit his temper, but he is more excellent who can suit his temper to any circumstance." –वह व्यक्ति प्रसन्न रहता है, जिसकी परिस्थितियाँ उसकी मन:स्थिति के अनुकूल हैं; किन्तु वह व्यक्ति और अधिक प्रसन्न एवं उत्कृष्ट है, जो अपनी मनःस्थिति को परिस्थिति के अनुकूल बना लेता है। ज्ञाता-द्रष्टा बनकर कार्य करने वाला समतायोगी कर्मबन्ध से युक्त नहीं होगा ऐसा समतायोगी ही ज्ञाता - द्रष्टा बनकर कर्म करता हुआ भी कर्मबन्धन से युक्त नहीं होता । 'भगवद्गीता' भी इसी तथ्य की साक्षी है - " अनायास ही १. ( क ) तुल्यनिन्दा-स्तुतिर्मोनी सन्तुष्टो येन केनचित् । समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ॥ तुल्य-प्रियाप्रियो धीरस्तुल्य-निन्दात्मसंस्तुतिः । (ख) जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिओ ण समुक्कसे। एवमन्नेसमाणस्स सामण्णमणुचिट्ठइ ॥ Jain Education International - भगवद्गीता, अ. १२, श्लो. १९ - वही, अ. १४, श्लो. २४ - दशवैकालिकसूत्र For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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