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________________ समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल वही है, जिसे तू डराना-धमकाना चाहता है । " " तात्पर्य यह है कि स्वरूपदृष्टि से सभी आत्माएँ एकसमान हैं। यह अद्वैत- अवस्था ही समतायोग का मूलाधार है। ऐसी स्थिति में अपना-पराया, मित्र - शत्रु, द्वेषी- अद्वेषी, प्रतिपक्षी-अप्रतिपक्षी, विरोधीअविरोधी, अनुकूल-प्रतिकूल आदि का कोई भेदभाव नहीं रहता, सबके प्रति समभाव रखना ही उसका धर्म हो जाता है। सभी उसके अपने हैं, पराया कोई नहीं है। ‘शान्तसुधारस' के अनुसार- " इस जगत् में सभी तुम्हारे प्रिय बान्धव (स्वजन ) हैं, कोई भी तुम्हारा शत्रु नहीं है। तुम अपने मन को, स्व-पुण्य को नष्ट करने वाले (दुर्भावना या भेदभावनायुक्त) क्लेश से कलुषित मत बनाओ ।" " इस प्रकार की आत्मीयतायुक्त समता जब जीवन में आ जाती है, तब उसके मन में किसी के प्रति राग- मोह, आसक्ति या द्वेष, द्रोह, घृणा, अरुचि को कोई स्थान नहीं होता । फिर उसमें जातिगत, सम्प्रदायगत, देश- वेष-भाषागत, प्रान्त - राष्ट्रगत कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं रहता। इस प्रकार की 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना या दृष्टि जव आ जाती है, तब उसे राग-द्वेष, भेदभाव आदि वैषम्यवर्द्धक भावहिंसाजनित पापकर्म को बन्ध नहीं करता, यही तथ्य 'दशवैकालिकसूत्र' में प्रकट किया है"जो सर्वभूतात्मभूत है, जिसकी प्राणियों के प्रति समभावपूर्वक दृष्टि है, जो नवद्वारों का जिसने निरोध कर दिया है, वह पापकर्म का बन्ध नहीं करता ।' यही समस्त जीवों के प्रति समभाव का रहस्य है। ,३ ‘भगवद्गीता' में समतायोग के इसी भावनात्मक रूप को दोहराया गया है-“हे अर्जुन ! जो समत्वयोगी सर्वत्र आत्मवत् ( अपने सदृश ) समस्त प्राणियों को देखता है, वह सुख हो या दुःख सबमें सम रहता है, वह परम श्रेष्ठ–योगी माना गया है।" सर्वभूतात्मभूत की दशवैकालिकसूत्रोक्त भावना भगवद्गीता में भी प्रतिबिम्बित हुई है–“अपनी आत्मा को सभी प्राणियों में और सभी प्राणियों को अपनी आत्मा में जो (समत्व) योग से युक्त आत्मा सर्वत्र देखता है, वह सर्वत्र समदर्शी है।”४ ४३ १. तुमं सि नाम तं चेव, जं हंतव्वं ति मन्नसि तुमं सि नाम तं चैव जं अज्जावेयव्वं ति मन्नसि, नाम तं चैव जं परितावेयव्वं ति मन्नसि तुमं सि नाम तं चैव जं परिघेतव्वं ति - आचारांग, श्रु. १, अ. ५, उ. ५ . मन्नसि तुमं सि नाम तं चैव जं उद्दवेयव्वं ति मन्नसि । २. सर्वे ते प्रियवान्धवा, नहि रिपुरिह कोऽपि । मा कुरु कलिकलुषं मनो, निज-सुकृत - विलोपि । ३. सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाई पास ओ । - शान्तसुधारस, मैत्रीभावना, श्लो. २ पिहि आसवरस दंतस्स पावकम्मं न बंधइ ॥ ४. आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ! सुखं वा यदि वा दुःखं, स योगी परमो मतः ॥ ३२ ॥ • सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा, सर्वत्र समदर्शनः ॥२९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - दशवै., अ. ४, गा. ९ - भगवद्गीता, अ. ६, श्लो. ३२, २९ www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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