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________________ ॐ समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल @ ४१ . कोमल और समतल बनाना होगा। तत्पश्चात् उसमें समत्व का वीजारोपण करना होगा। इतना करने मात्र से ही झटपट समता का बीज अंकुरित नहीं हो जाएगा। वीजारोपण करने के पश्चात् उसे अंकुरित करने तथा उसकी रक्षा करने का वार-बार ध्यान रखना होगा। पर-भाव और विभावरूपी पशु-पक्षी आकर उस समता के अंकरित पौधे को उखाड़ें और रौंदें नहीं, इसके लिए उसे स्वभावरमणतारूपी पहरेदारी से उसका रक्षण करना होगा, बार-बार तप, संयमरूपी भावों के जल से उसे सींचते रहना होगा। इस प्रकार समता के पौधे को पुष्पित-फलित करने के लिए उसे विषमतारूपी दीमकों से बचाना होगा। जहाँ-जहाँ विषमता है. विकृतियाँ हैं, वहाँ समतायोग का साधक विषमताओं को समत्व में परिणत कर लेता है। वह प्रत्येक घटना, प्रतिकूलता, अप्रिय पदार्थ, परिस्थिति या व्यक्ति आदि को देखकर निषेधात्मक दृष्टि से न सोचकर विधेयात्मक दृष्टि से सोचेगा और संसार की विषमता के बीच रहकर भी अपनी मनःस्थिति को सम, सौम्य एवं धैर्य से युक्त रखकर समता स्थापित कर लेता है। विषम परिस्थिति, व्यक्ति, घटना या वस्तु से वास्ता पड़ने पर समतायोगी समतायोग के पौधे की सुरक्षा के लिए अपनी दृष्टि, बुद्धि, मन, चित्त और प्रज्ञा समभाव से ओतप्रोत रखता है। वह इन अन्तःकरणों और बाह्यकरणों (इन्द्रियों) पर सतत निगरानी रखता है कि कहीं ये आत्मा को विषमता की ओर न ले जाएँ। समतायोगरूप वृक्ष के चार रूपों की आराधना समतायोग के पौधे को विशाल वृक्ष के रूप में पुष्पित-फलित करने हेतु मुमुक्षु-साधक समतायोग की चार चरणों में सतत श्रद्धा-भक्तिपूर्वक आराधना करता है। वे चार चरण इस प्रकार हैं-(१) भावनात्मक, (२) दृष्टिपरक, (३) साधनात्मक, और (४) क्रियात्मक। समतायोग के इन चारों रूपों की सम्यक् आराधना एवं अभ्यास करने से समतायोगी मुमुक्षु समतायोगरूपी वृक्ष के सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्षफल को प्राप्त कर लेता है। समतायोग का प्रथम रूप : भावनात्मक समभाव भावनात्मक समतायोग का स्वरूप और मूल्य समतायोग के इन चार मुख्य रूपों में भावनात्मक समभाव मुख्य है। इस समभाव में भावना की प्रधानता रहती है। विषमता की परिस्थिति, प्रतिकूल व्यक्ति, वस्तु या घटना का संयोग आ पड़ने पर समभाव में, समतायोग में स्थिर रहना, समत्व से जरा भी विचलित न होना भावनात्मक समतायोग का स्वरूप है।' . १. 'पानी में मीन पियासी' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. २४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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