SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 82 ३६ ७ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ करता है, जो सत्ता मेरे अन्दर है; तव विभिन्न विकल्यों या पर्यायों के रूप में प्रतिक्रिया नहीं होती। समतायोग से मोक्ष की मंजिल पाने का दूसरा उपाय : सर्वभूत-मैत्री ... समतायोग से मोक्ष की मंजिल प्राप्त करने के लिए दूसग उपाय हैसर्वभूत-मैत्री। यह समतायोग की प्राण है। मैत्री का सामान्य लक्षण एक आचार्य ने किया है-'परहितचिन्ता-मैत्री'-'दूसरों के हित का विचार करना।' दूसरों को जिससे आनन्द प्राप्त हो, दूसरों का विश्वास जीता जाए, दूसरों के कल्याण एवं आत्म-रक्षा का विचार करना, दूसरों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझकर निःस्वार्थभाव से मार्गदर्शन या प्रेरणा करना मैत्री है। दूसरों के प्रति निःस्वार्थ प्रेम, वात्सल्य, वन्धुत्व और आत्मौपम्यभाव रखना भी मैत्री है। मैत्री मन, वचन, काया, बुद्धि, चित्त और हृदय को पवित्र भावना से भर देती है। मैत्री में अपने सुख या स्वार्थ की, स्वयं के जीने की भावना मुख्य नहीं होती, मुख्य होती है-सबके सुख, हित, आरोग्य या जीवन की भावना। अगर व्यक्ति किसी के दवाव से, किसी भय या प्रलोभन से, किसी पद, प्रतिष्ठा, यश या प्रसिद्धि की, नौकरी में तरक्की पाने की भावना से दूसरों को शारीरिक सुख पहुँचाता या उनको सुख-सामग्री मुहैया करता है अथवा किसी सामाजिक स्वार्थ से प्रेरित होकर कार्य करता है या सहयोग देता है; समझ लो, अभी तक वहाँ सच्चे माने में मैत्री नहीं आई। किन्तु भविष्य में वैर-विरोध उत्पन्न न हो, बढ़े नहीं, संघर्ष न हो, रौद्रध्यान की भयंकर परिणति होने की संभावना न हो अथवा वर्तमान में बढ़े हुए या पनपे हुए वैर-विरोध शान्ति से मिट जाएँ अथवा दूसरे की प्रगति, उन्नति, प्रसिद्धि या कीर्ति आदि देखकर मन में ईर्ष्या, द्वेष, कुढ़न, जलन, घृणा आदि दुर्भाव बढ़ने की अधिक आशंका हो, ऐसी स्थिति में कोई स्व-पर-हितैषी, आत्म-रक्षक, वीतरागभक्त, धर्मवीर, पारस्परिक क्षमायाचना, शान्ति, कषायोपशमन हेतु यदि मैत्री.या मैत्री के अंगभूत सन्धि, सुलह, क्षमापना, अनुनय-विनय आदि का मार्ग अपनाता है, उसके लिए उसे स्वयं को कुछ क्षति, हानि भी उठानी या सहनी पड़े तो वह तत्पर रहता है। वह सच्ची मैत्री है। ऐसी मैत्री कैसे स्थायी और सुदृढ हो, इसके लिए ‘समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल' तथा 'आत्म-मैत्री : कर्मों से मुक्ति का ठोस कारण' तथा 'मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव' शीर्षक निबन्ध में स्पष्ट कर आए हैं। विश्वमैत्री की शुद्ध भावना से व्यक्ति संवर और निर्जरा करते हुए मोक्ष के निकट पहुँच सकता है। १. अपना दर्पण : अपना बिम्ब' (आचार्य महाप्रज्ञ) के आधार पर, पृ. ३०-३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy